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मंगलवार, 27 मई 2008

भुगतना तो आम जनता को ही पड़ता है !

आए दिन देश मैं कहीं धरना तो कहीं जुलूस तो कहीं हिंसक प्रदर्शन प्रायोजित कराये जाते हैं । जिसमें आम जनता बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है वह भी बिना परिणाम और नुकसान के सोचे हुए । चाहे वह इनमे भाग लेने वाली जनता हो या फिर इससे प्रभावित होने वाली आम जनता जो बिना भाग लिए परेशानी और नुकसान को झेलती हो , भुगतती तो आम जनता ही है । इनमे प्रायोजक के रूप मैं भाग लेने वाले न तो कोई नेता और न ही अगुवाई करने वाले लीडर को कोई जान माल का नुकसान होता है । हर बार वे सुरक्षित बच जाते हैं , आख़िर ऐसा क्यों ? संकट और विषम परिस्थितियों मैं ये जुलूस और धरना के प्रणेता और नेता जनता को हिंसा की आग मैं झुलसने के लिए छोड़कर कंहा भाग जाते है ? राजस्थान मैं गुर्जर का आन्दोलन जिसने की हिंसक रूप ले लिया है और कई लोगों की जान भी चली गई है इसी प्रकार की घटना का ही एक क्रम है ।
जब भी इन नेता और राजनेताओं को अपने स्वहित और राजनैतिक हित साधना होता है तो जनता की भावना को भड़काकर उन्हें जुलूस , धरना और हिंसक प्रदर्शन मैं मरने और मारने के लिए छोड़ जाते हैं । इस प्रकार के प्रदर्शन मैं होने वाली जन और धन की क्षति को निरीह जनता भुगतने के लिए मजबूर हो जाती है । कई बार तो यह देखने मैं आता है की जिन मांगो को लेकर इस प्रकार के आयोजन किए जाते है प्रायोजक नेता स्वहित या राजनैतिक हित साधने के बाद जनता की समस्यायों और मांगो का निराकरण हुए बिना समाप्त करने की घोषणा कर देते हैं ।
अतः जनता को चाहिए अब उन्हें लोगों के बहकावे मैं नही आना चाहिए । अब इस बात को जनता को समझ जाना चाहिए की ऐसे आयोजन मैं सिर्फ़ उनका इस्तेमाल होता हैं और इसके नुकसान और क्षतियों को ताउम्र भुगतने के लिया जनता और उनके परिवार को विवश होना पड़ता है । सामाजिक वैमनस्यता भी बढ़ती है ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. हम तो भुगत भोगी है.. पिछले साल आरक्षण के समय बहुत तकलीफ़ हुई थी इस बार भी कुछ वैसा ही लग रहा है..

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  2. नुकसान और क्षतियों को ताउम्र भुगतने के लिया जनता और उनके परिवार को विवश होना पड़ता है ।

    -सही कह रहे हैं.

    जवाब देंहटाएं

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