गुरुवार, 18 जून 2009

लोकतंत्र का यह कैसा एकतरफा समझोता !

जब भी कोई संस्था अथवा संगठन अथवा व्यक्ति किसी संस्था अथवा व्यक्ति को अपने कार्यों को संपादित करने एवं व्यवस्थाओं को बनाए रखने की जिम्मेदारी सौपती है तो उनके बीच दो पक्षीय समझोता होता है और तय मापदंड और शर्तों के आधार पर कार्य करने को राजी होते हैं । समझोता के तय मापदंड और शर्तों के अनुरूप किसी एक भी पक्ष द्वारा कार्य नही किया जाता है तो यह करार तोड़कर जिम्मेदारी एवं जबाबदेही से मुक्त कर दिया जाता है ।

किंतु लगता है की हमारे लोकतंत्र मैं एकपक्षीय व्यवहार अथवा एकपक्षीय करार की परम्परा चली आ रही है । लोकतंत्र कहलाता तो जनता का शासन किंतु यंहा जनता शासन करते हुए कंही नजर नही आती है इसके उलट जनता ख़ुद शासित होती नजर आती है । लोकतंत्र के उत्सव चुनाव के माध्यम से चुने हुए जनप्रतिनिधि अथवा सरकार जनता पर एकतरफा शासन करते हुए नजर आते है । एक बार जनप्रतिनिधि चयनित होने के पश्चात अपने मनमाफिक कार्य करते हैं , यंहा तक की चुनाव के समय जनता से किए गए बड़े बड़े वादों से मुकर कर जनता और क्षेत्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेते हैं । अगले आने वाले चुनाव के पहले तक ना तो उन्हें कोई टोक सकता है और ना ही रोक सकता है और न ही संतोष जनक कार्य न करने की स्थिती मैं हटा सकती है ।।

तो हुआ न यह एकतरफा व्यवहार अथवा करार । चयनित होने के बाद आगामी पाँच वर्षों तक वे क्या करेंगे या फिर क्या कर रहे हैं इसका हिसाब किताब जनता के सामने रखने का कोई रिवाज नजर नही आता है और न ही उन्हें कोई मजबूर कर सकता है । ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे की एक बार चयनित होने के बाद जनप्रतिनिधि वर्षों तक अपने क्षेत्र मैं जाने की जहमत नही उठाते हैं और न ही संसद अथवा विधानसभा पटल पर अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए नजर आते है । जनता इस उम्मीद मैं राह देखते रहती है की कभी तो उनका प्रतिनिधि उनके दुःख दर्द और समस्यों के बारे मैं पूछने आएगा किंतु अगले चुनाव के पहले तक दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं । और जनता है की दूसरे चुनाव के पहले तक चाह कर भी कुछ नही कर सकती है । यंहा तो यह समझना मुश्किल है की जनप्रतिनिधि किसके प्रति जबाबदेह है , अपने राजनीति आका अथवा पार्टी , सरकार अथवा जनता के प्रति ।

क्या जनता और जनप्रतिनिधि के बीच लोकतंत्र के ऐसे आदर्श समझोता की आशा की जा सकती है की जिसमे दोनों पक्ष बराबरी से एक दूसरे के प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वहन करें । जनता जब चाहे अपने प्रतिनिधि को अपने क्षेत्र मैं बुला सके , उससे उसके क्षेत्र की जनता समय समय पर अथवा हर छः माह मैं क्षेत्र और क्षेत्र के लोगों के विकास और कल्याण हेतु किया गया कार्यों का लेखा जोखा ले सकें , उसके कार्यों का आकलन और समीक्षा कर सके और कार्य आशानुरूप और संतोषजनक न होने पर उसे अपना जनप्रतिनिधि होने की जिम्मेदारी से वंचित कर सके । एक स्वस्थ्य और सच्चे लोकतंत्र के लिए ऐसी मंगलकामना तो की ही जा सकती है ।

मंगलवार, 16 जून 2009

शासकीय लोगों द्वारा ही - शासकीय संस्थाओं की उपेक्षा / बेजा उपयोग !

देश अथवा प्रदेश के मंत्री हो अथवा बड़े अधिकारी हो अथवा अधिक वेतन और ऊँचे ओहेद वाले कर्मचारी है प्रायः यह देखने मैं आता है की वे स्वयं अथवा उनके परिजन शासकीय संस्थाओं जैसे स्कूल , अस्पताल अथवा अन्य शासकीय संस्थाओं से सेवा प्राप्त करने हेतु जाने से कतराते हैं । क्या कभी ये लोग सरकारी स्कूलों मैं अपने बच्चे को पढाते हुए पाये जाते हैं , क्या सरकारी अस्पतालों से स्वास्थय सुविधा प्राप्त करते हुए पाये जाते हैं क्या इन लोगों को शासकीय राशन की दुकानों से राशन प्राप्त करते हुए देखा गया है या फिर राज्य परिवहन अथवा सड़क परिवहन की बसों एवं वाहनों से सफर करते हुए देखा गया है या कभी रसोई गैस के लिए कतार मैं लगते हुए अथवा चक्कर लगाते हुए देखा गया है । हाँ इसमे अपवाद जरूर हो सकते हैं । आख़िर ऐसा क्यों ? जिन लोगों के हाथ मैं ही जनता के हित और विकास हेतु नीतियां बनाने और उसके प्रभावी ढंग से क्रियान्वयन की जिम्मेदारी होती है वे ही इस तरह की सेवा प्रदान करने वाली शासकीय संस्थाओं की उपेक्षा करते हुए नजर आते है । इस उपेक्षा पूर्ण रवैया का ही परिणाम है की आज इस तरह की संस्थाओं मैं व्यवस्थाओं का आलम वाद से बत्तर होते जा रहा है । आम जनता को इन बत्तर व्यवस्थाओं के साथ जीने हेतु छोड़ दिया जाता है । प्रश्न यह उठता है की जब एलिट वर्ग के लिए इन संस्थाओं की सेवा गुणवत्ता युक्ता और बेहतर नही है तो फिर ये बिना ऊँचे ओहदा , प्रभाव और निम्न आय वाली आम जनता के लिए कैसी बेहतर हो सकती है ।
इसके विपरीत जन्हा तय मापदंड और नियम विरुद्ध बेजा लाभ प्राप्त करने की बात हो तो ये लोग वंहा भी पीछे नही रहते हैं । जैसे सम्बन्धियों को सरकारी लाभों , कामों अथवा नौकरियों मैं निय्क्तियों हेतु सिफारिश करना , स्वयं अथवा स्वयं के जान पहचान वालों को तय मापदंडो अथवा नियम विरुद्ध कार्यों हेतु दबाब डालना , सरकारी वाहनों एवं अन्य सुबिधायों का बेजा इस्तेमाल करना , इत्यादि इत्यादि ।

अतः जरूरी है की शासकीय संस्थाओं जैसे स्कूल , अस्पताल अथवा अन्य शासकीय संस्थाओं से सेवा प्राप्त करना देश के प्रत्येक नागरिक (चाहे वह छोटा अथवा बड़ा हो ) हेतु अनिवार्य किया जाए । किसी विशेष परिस्थितियों मैं ही निजी अथवा प्राइवेट संस्थाओं से सेवा लेने हेतु अनुमति दे जाए । तभी शासकीय संस्थाओं की व्यवस्थाओं मैं सुधार हो सकेगा । जब देश अथवा प्रदेश के मंत्री अथवा बड़े अधिकारी अथवा अधिक वेतन और ऊँचे ओहेद वाले कर्मचारी इन संस्थाओं मैं सेवा प्राप्त करने हेतु जायेंगे तभी ये नीति निर्माता और क्रियान्वन करने वाले लोगों के सामने सही और व्यवहारिक कठिनाई और समस्या सामने आ पाएगी और बेहतर ढंग से इनका निराकरण कर सकेंगे । एकाध दिन अथवा कुछ घंटों के आकस्मिक निरिक्षण से पुर्णतः व्यवस्थाओं को समझने और उसमे सुधार किया जाना सम्भव नही है । क्योंकि कुछ समय के लिए तो कमियों को छुपाया जा सकता है और बनाबटी और दिखावटी व्यवस्था को कुछ समय के लिए बनाए रखा जा सकता है । अतः एक बेहतर व्यवस्था को बनाये रखने और सफल क्रियान्वयन हेतु नीति निर्माता और क्रियान्वन करने वाले लोगों का इस व्यवस्था का अंग बनने और उसके भागीदार होना जरूरी है ।

बुधवार, 10 जून 2009

यह भेद का भाव कब मिटेगा !

एक इंसान का दूसरे इंसान मैं भेद अर्थात अन्तर करने का यह भावः प्राचीन काल से चला आ रहा है । कभी ऊंची और नीची जाती के रूप मैं तो कभी उच्च कुल और निम्न कुल के रूप मैं तो कभी आमिर और गरीब के रूप मैं । किंतु यह इंसानी समाज ज्यों ज्यों जितना आधुनिक , पढालिखा और सभ्य कहलाने लगा है उतना ही यह इंसान से इंसान मैं भेद करने का भाव नए नए रूप मैं सामने आ रहा है । जैसे हाल ही की रंग भेद की घटना जो की आस्ट्रेलिया मैं भारतीय छात्रों के साथ हुई है नस्लभेद और रंगभेद का दंश पहले भी कई बार भारतीय झेल चुके हैं , बिहार मैं ट्रेन जलाने की घटना जिसमे क्षेत्रवाद के भेद की बू आती है ( इसमे इस बात की दुबिधा जरूर हो सकती है की इसमे पहले देश के अन्य क्षेत्रों के लोगों के साथ भेदभाव हुआ है फिर अब बिहार के लोगों के साथ हो रहा है ) । यह भेद भावः कई रूपों मैं विद्यमान है । रंगभेद , लिंगभेद , क्षेत्रवाद , जातिवाद , सम्प्रदायवाद , गरीब अमीर का भेद , पढ़े लिखे और अनपढ़ का भेद , एलिट और नॉन एलिट का भेद इत्यादि , इत्यादि ।
इस प्रकार भेदभाव के चलते उपेक्षित और प्रताडित लोगों मैं असंतोष और आक्रोश का भावः पनपता है और फ़िर शुरू होता है व्यवस्था के ख़िलाफ़ विरोध के स्वर उठने का सिलसिला । परिणाम स्वरुप कंही सामूहिक प्रदर्शन , तो कंही सामूहिक जुलुश । इस तरह की सुलगती हुई आग मैं निजी अथवा राजनीतिक स्वार्थी और अपने उल्लू सीधा करने वाले लोग घी डालने का काम करते है और लोगों को सामाजिक और शासकीय व्यवस्था के ख़िलाफ़ हिंसक होने हेतु प्रेरित करते हैं । कंही आगजनी , कंही तोड़फोड़ तो कंही मारपीट और यंहा तक नरसंहार जैसी घटना विकराल रूप लेने लगती है । विश्व और देश मैं फैली आतंकवाद , नक्सलवाद और नस्लवाद जैसी घटनाओं के पीछे इसी प्रकार के भेदभाव पूर्ण नीतियों और व्यवहार के योगदान से इनकार नही किया जा सकता है ।
प्रायः यह देखा जाता है की भेदभाव पूर्ण वयवहार के प्रतिरोध मैं विरोध के स्वर उठने पर तात्कालिक व्यवस्था के अर्न्तगत फोरी तौर पर आवश्यक कदम उठाये जाते हैं किंतु इस घटना के पीछे मूल कारण को जानकर उसे दूर करने की कोशिश मैं दृढ इक्छा शक्ति की कमी नजर आती है । व्यवस्था मैं वाँछित सुधार करने और लोगों की मूलभूत आवश्यकता अनुरूप पहल होने के प्रयास कम ही नजर आते हैं ।
जरूरी है की आज के बदलते परिवेश और लोगों की आवश्यकता और व्यवहार के अनुरूप व्यवस्था मैं सुधार करने की जरूरत है । सबसे जरूरी है की सभी को समान रूप से स्थानीय स्तर पर भेदभाव रहित शिक्षा , स्वास्थय , रोजगार और खाद्य सुरक्षा के साथ जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं मैं सहायक बिजली , पानी और आवास जैसी सुबिधा उपलब्ध कराई जाए । जिससे लोगों को अपने क्षेत्र से पलायन करने हेतु मजबूर होना ना पड़े । इस बात का भी भरोसा स्थानीय लोगों को दिलाना चाहिए की , उन्हें ऐसा प्रतीत न हो की बहार से आए लोग उनके रोजगार के अवसर को कम नही करेंगे , उनके हिस्से और हक़ के संसाधनों का उपभोग कर उनकी सुख सुबिधाओं मैं खलल पैदा नही करेंगे । इन सब बातों का ध्यान रखकर और सभी लोगों की शासन , प्रशासन और विश्व , देश और समाज की सभी गतिविधियों मैं बिना किसी भेदभाव के समान भागीदारी सुनिश्चित कर एक सद भाव पूर्ण एवं भेदभाव रहित समाज , देश और विश्व की मंगल कामना कर वसुधेव कुटुम्बकम की अवधारणा को मूर्तरूप दिया जा सकता है ।