जब पल पल बढ़ती है रात घनेरी सी ,
तब बिछती है बिसात अंधेरों की ।
लौट आते है सब अपने आशियाने को,
पथिक ढूंढ़ते है ठिकाने रात बिताने को,
लिये मन में आस नये सबेरे की ,
बस गुजर जाएगी रात ये घनेरी सी ।
पल पल बढ़ती रात घनेरी सी ,
तब होती है दुनिया आबाद बेजारों की ।
सजते है मयखाने दिल बहलाने को,
छलकते है जाम गम भुलाने को ,
हसरतें भरती है उड़ान तूफानी प्याली की,
सहला रही है दिलों के जज्बात रात घनेरी सी ।
जब पल पल बढ़ती रात घनेरी सी ,
तब होती है आबाद दुनिया लुटेरों की ।
दुबक जाते है लोग घरों में महफूज हो जाने को ,
निकलते है जुल्म के शैतान उत्पात मचाने को ,
लो बढ़ने लगी है हलचल पुरानी हवेली की ,
गहरा रही है कितने राज ये रात घनेरी सी ।
जब पल पल बढ़ती रात घनेरी सी ,
सड़क किनारे लगती सेज मजदूरों की ।
बन जाती है सराय एक रात सो जाने को ,
थमते है कदम दिनभर की थकान मिटाने को ,
यूं ही कटती है रात जैसे दुल्हन नवेली की,
मिलती है चांदनी से बिंदास रात घनेरी सी l