गुरुवार, 26 जून 2008

पहले से क्या जोखिम कम थे !

इंसान की जिंदगी हमेशा से जोखिमों से भरी रही है । इंसान ही है जो अपने आस पास होने वाली जोखिम भरी हर प्राकृतिक और कृत्रिम गतिविधियों से संघर्ष करते हुए मिलजुलकर उनसे सामंजस्य बैठाने का प्रयास करते हुए आया है । चाहे वह कोई प्राकृतिक आपदा जैसे आंधी , तूफ़ान , बाढ़ , भूकंप और भीषण अकाल और सुखा हो या घातक और नुकसानदायक जीव जंतु हो या फिर मानव निर्मित आतंकी गतिविधिया हो या सड़क दुर्घटना , मारपीट और खून ख़राब जैसी घटना हो । इस प्रकार पहले से ही इंसान के लिए जीवन काफ़ी कांटो भरा और संघर्ष पूर्ण रहा है । किंतु आए दिन होने वाले प्रदर्शन जो की हिंसक होते जा रहे है न जाने उनसे किसी भी इंसान का कब और कैसे वास्ता पड़ जाए कहा नही जा सकता है । कब और कंहा इंसान को अपनी जान जोखिम पर डालना पड़े, बिन बुलाए मुसीबत कब आन पड़े , इन होने वाले प्रदर्शनों के दिनों दिन होते उग्र और हिंसक रूप को देखते हुए कुछ कहा जाना मुश्किल है ।
बाज़ार या फिर किसी काम से बाहर निकले हो या फिर किसी यात्रा पर निकले हो और अचानक कोई आन्दोलन और प्रदर्शन होने लगे तो वही फंसे रहने और प्रदर्शन के हिंसक होने पर जान माल के नुक्सान का जोखिम बना रहता है । उस इंसान को जिसका कोई सम्बन्ध इस प्रकार के आन्दोलन और प्रदर्शन से दूर दूर तक कोई वास्ता नही रहता है उसे वेवजह ही परेशानी उठानी पड़ती है और अपनी तथा परिवार वालों की जान जोखिम डालनी पड़ती है । यंहा गौर करने वाली बात यह है की देश के नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी जिन संस्थाओं और लोगों पर होती है वे ऐसे परिस्थितियों मैं किं कर्तव्य बिमूढ़ बने रहते हैं । उन्ही के सामने आन्दोलनकारी बेगुनाह लोगों पर अपना आक्रोश और गुस्सा उतारते रहते हैं और लोगों की निजी संपत्ति और सार्वजानिक संपत्ति के साथ तोड़फोड़ कर आग के हवाले करते हैं ।
ऐसी परिस्थतियों मैं अब क्या इंसान अपने को सुरक्षित कह सकता है ? अब तो यह सोचकर घर से बाहर निकलना पड़ेगा कब अचानक घर की और सुरक्षित वापसी असंभव हो जाए , या कब बिन बुलाए ही मुसीबत छप्पर फाड़ कर आ जाए । क्या इस प्रकार से आक्रोश और गुस्सा के रूप मैं सामूहिक रूप से बढती हिंसक प्रवृत्ति पर रोक लग सकेगी ? यह एक यक्ष प्रश्न अब हर इंसान के मन मैं कोंधने लगा है ।

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