शनिवार, 26 जुलाई 2008

बम धमाकों की गूँज दुबारा सुनने को न मिले !

आए दिन देश मैं कंही न कंही बम धमाकों की गूँज समाचार पत्रों , रेडियो और टीवी के माध्यम से सुनाई देती रहती है , परन्तु क्या अब यह गूँज सरकार और प्रशाशन को पहले जैसे विचलित और उद्देलित करती है ? क्या अब भी पहले जैसे मन सिहर उठता है ? क्योंकि अब तो यह हमेशा सुनाई देती रहती है अब तो उसका कर्कश शोर सुनने की आदत सी हो गई होगी । इन धमाकों की गूँज मैं कितने ही लोग घायल और हताहत हुए होंगे , कितनो ने अपने परिवार के प्रिय सदस्यों को खोया होगा । कितने ही लोग इन धमाकों की गूँज मैं शारीरिक और मानसिक रूप से लाचार और विवश हो गए होंगे । ये बम धमाकों को बार बार सुनने और इनके त्राशदी को झेलना देश के लोगों की नियति बनते जा रहे हैं , वह भी देश के प्रशासन और सरकार के विफलता पूर्ण अदूरदर्शी नीतियों के कारण । इन बम धमाकों की त्राशदियों पर हर बार की कुछ राजनेता और अधिकारी आयेंगे और हमेशा की तरह कई घोषणाओं और आश्वाशानो की झडी लगा जायेंगे , और फिर वाही धाक के तीन पात वाली स्थिति हो जायेगी और फिर किसी दूसरे बम धमाकों की घटना होने तक कुम्भ्करनी नींद सो जायेंगे । प्रभावित शहर मैं भी कुछ दिन बाद सब कुछ भूलकर फिर बेफिक्र होकर सामान्य जीवन बहाल हो जायेगा । बस इस त्राशदी की पीड़ा को झेलने को मजबूर होगा तो सिर्फ़ प्रभावित परिवार और प्रभावित लोग ।
किंतु इन सबके बीच आतंकी और विकृत मानवीय मानसिकता वाले लोग फिर एक नए धमाकों को देश के किसी नए कोने मैं अंजाम देने हेतु जुट जायेंगे , वह भी देश के लोग और प्रशासन और देश की सुरक्षा एजेन्सी को चकमा देकर । एक बात यह है की आतंकी और विकृत मानवीय मानसिकता वाले लोग जरूर चौकन्ने रहते हैं परन्तु हम यह सब भूलकर बेफ्रिक्र हो जाते हैं ।
अतः आवश्यक है की दुबारा ऐसी त्राषद पूर्ण घटना देश मैं कंही भी न घटे और धमाकों की गूँज पुनः न सुनाई दे इस हेतु प्रशासन और देश की सुरक्षा एजेन्सी के साथ साथ आमजन को भी चौकन्ने और सजग और सचेत रहना होगा । अपने आस पास होने वाली हर छोटी और बड़ी हलचलों पर नजर रखना होगा तभी हम इन दर्दनाक और विध्वंशक घटनाओं और आतंकी और विकृत मानवीय मानसिकता वाले लोगों के विकृत मंसूबों पर रोक लगा सकेंगे ।

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

मजबूर ये हालत - हर कही है !

देश मैं २२ तारीख को विश्वाश मत प्राप्त करने हेतु जनता चुने हुए नुमाइंदे की खरीद फरोख्त के काले कारनामे चल रहे थे । कोई पैसों मैं बिकने को तैयार था तो कोई पद के लालच मैं बिकने को तैयार था । लालच के इस खेल मैं कोई निजी हितार्थ मूल पार्टी छोड़कर जाने को तैयार था , तो कोई अपनी पार्टी और सरकार बनाने हेतु अपनी दावेदारी पक्की करने की जुगत मैं खरीद फरोख्त मैं लगा हुआ था । सत्ता पक्ष भी अपनी सरकार बचाने के चक्कर मैं जेल मैं बंद पड़े दागी सांसद को भी गले लगाने से भी परहेज नही कर रहा था , तो अपने पर भारी पड़ते विरोधियों को कमजोर करने हेतु देश की महत्वपूर्ण शासकीय संस्था का दुरूपयोग करने से नही हिचक रहे थे । संसद मैं एक दूसरों पर कीचड़ उछालने और एक दूसरे को भुला भरा कहने मैं मर्यादा की सारी हदें ताक मैं रख दी गई थी । संसद मैं रुपयों की गद्दी को लहराकर साता पक्ष द्वारा अपने को खरीदे जाने की बात भी बेशर्मी से स्वीकारी जा रही थी । इस प्रकार देश के लोकतंत्र का काला इतिहास लिखा जा रहा था ।
किंतु बेचारी जनता यह सब मूक बन और किम कर्तव्य बिमूढ़ हो देखने हेतु मजबूर थी । आख़िर उसके पास इसके सिवाय कोई चारा भी नही था । अपने द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के काले और अमर्यादित आचरण को देखकर अपने को ठगा हुआ महसूस कर रही थी । क्योंकि देश का कानून बनाने वाले इन्ही लोगों ने ऐसा क़ानून बनाया है की अपने को सर्व शक्तिमान और जनता को मातृ वोट का अधिकार पकड़ाकर कमजोर और असहाय बना डाला है । वे जो करे वह सब सही और जायज , उन पर कोई ऊँगली उठाना वाला नही और रोकने वाला नही । जनता को जनार्दन कहकर और उसके सामने ही सब कुछ काला और बस काला किया जा रहा है और चुनाव की दुहाई देकर चुनाव आने तक जो मनमर्जी आए किया जा रहा है । बस एक बार जनता से लायसेंस प्राप्त कर आने वाले ५ सालों तक मनमर्जी की मालिक हो गए । फिर वह जनता जिसने उसे चुना है वह मरे या सड़े पलटकर चुनाव तक देखने की जरूरत ही नही । ज्यादा होगा तो आने वाले चुनाव मैं जनता को प्रलोभन देकर और साम , दाम दंड भेद किसी भी प्रकार के नीति अपनाकर चुनाव को अपने पक्ष मैं कर लेंगे ।
जनता भी हालात से मजबूर है । वह भी कुछ कर नही सकती है । वह भी पार्टी द्वारा थोपे गए प्रतिनिधियों को चुनकर उन्हें आने वाले ५ वर्षों तक झेलने हेतु मजबूर हैं । मजबूर ये हालात हर कही है , अब जनता किससे कहे ? क्योंकि वोट रुपी अधिकार के अलावा उसके हाथ मैं कुछ भी नही है , जिसका प्रयोग कर वह नेताओं को चुन तो सकती है किंतु हटा नही सकती है ।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

जिस डाली मैं बैठे है उसे ही काट रहे हैं !

सत्ता हथियाने का कैसा कलुषित खेल देश मैं खेला जा रहा है , सभी राजनेता और राजनैतिक दल अपने अपने नफे नुक्सान के हिसाब से इस खेल मैं अपनी भागीदारी कर रहा है । नियमों और मर्यादायों की सभी सीमाओं को लाँघ कर सत्ता प्राप्ति का और सरकार गिराने का हर सम्भव खेल खेला जा रहा है । इस समय कोई अपराधी , नही कोई विरोधी नही , अपने अपने सहूलियत से एक दूसरे से हाथ मिलाने और गले मिलने को तैयार है । जो कल तक घोर विरोधी था वह दोस्त बन गया है और जो दोस्त था वह दुश्मन हो गया है । एक दूसरे पर ऐसे आरोप भी लगाए जा रहे है की पैसे से या फिर पद के लालच मैं बिकने और खरीदने को तैयार है । देश के ऐसे राजनैतिक परिद्रश्य पर संभवतः २२ जुलाई के बाद ही विराम लग सकेगा । तब तक हमें रेडियो और टीवी के माध्यम से देखने और सुनने को और अखबार के माध्यम से पढने को यह सब मिलता रहेगा । तब तक आम आदमी और उसकी समस्यायें , देश और उसके महत्वपूर्ण मुद्दे और निर्णय हासिये पर जाते रहेंगे ।
देश मैं मचे राजनैतिक घमाशान से जन्हा लोगों की राजनीति से दूरियां बढ़ रही है वन्ही लोकतंत्र के साथ हो रहे इस घिनोने मजाक से लोगों का लोकतंत्र से विश्वाश उठने लगा है । लोकतंत्र के नाम पर पहले भी लोगों की भागीदारी सिर्फ़ वोट डालने तक सीमित थी , किंतु अब लोग अब इस पुनीत कार्य से भी कतराने लगे हैं । बमुश्किल ५० फीसदी से भी कम लोगों की चुनाव मैं भागीदारी रहती थी , किंतु ऐसी स्थिति मैं तो लोगों के रुझान मैं और कमी आएगी । आम जन अपने चुने हुए प्रतिनिधि के वादा खिलाफी और स्वार्थसिद्धि हेतु किए जाने वाले कारनामे से दुखित और निराश हैं ।
अतः राजनेता और राजनैतिक दल अपने हाथ से अपने पैरों मैं ख़ुद कुल्हाडी मारने का काम कर रहे हैं । वे लोकतंत्र रुपी जिस डाली मैं बैठे हैं उसे ही काटने को तुले हैं । जब लोगों का राजनेता और राजनैतिक दलों पर से विश्वाश उठने लगेगा तो लोगों का लोकतंत्र के प्रति रुझान मैं स्वतः ही कमी आने लगेगी । और जब लोग ही चुनाव मैं वोट डालने ही नही जायेंगे फिर लोकतंत्र तो खतरे मैं पड़ेगा ही , और जब लोकतंत्र खतरे मैं होगा तो फिर कान्हा राजनेता और कान्हा राजनैतिक दल सुरक्षित रहेंगे ।
यदि राजनेता और राजनैतिक दलों का ऐसा ही आचरण और आलम रहा तो एक दिन उनका अस्तित्व ही खतरे मैं आ जायेगा । अतः आवश्यकता है लोकतंत्र के प्रति लोगों के घटते विश्वाश को बचाने की , राज नेता और राजनैतिक दलों को अपने आचरण और कार्यों मैं सुधार कर खतरे मैं पड़ते अपने अस्तित्व को बचाने की । तभी देश मैं स्वस्थ्य लोकतंत्र के परचम को फिर से लहराया जा सकेगा ।

बुधवार, 16 जुलाई 2008

क्या वोट के अधिकार मात्र से सुधार मुमकिन है !

हर बार देश मैं मचे राजनैतिक घमासान पर जनता को दोषी ठहराकर और जनता के ऊपर जिम्मेदारी डालकर मुंह मोड़ लिया जाता है और हर पार्टी अपनी विरोधी पार्टी के कारनामे पर कहती है की जनता सबक सिखायेगी । हर राजनैतिक पार्टी और राजनेता जनता को भगवान् मानकर हर मसले पर जनता की अदालत मैं जाकर देश के हर मसले को सुलझाने की बात करती है । किंतु वे ही जनता की आँख मैं धूल झोंककर और विश्वाश्घात कर अवसरवादिता और स्वार्थ सिद्धि का खेल खेल रही है ।
जनता की बात करे तो क्या जनता मैं ऐसे कितने लोग है जो बिना किसी पूर्वाग्रह से , बिना लालच मैं आए अपने स्वविवेक से अपने प्रतिनिधियों को चुनने मैं अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । ऐसे कितने लोग है जो देश हित और जन हित के मुद्दे को ध्यान मैं रखकर अपना नेता को चुनते हैं । जनता मैं बहुत से लोग ऐसे हैं जो शिक्षित नही हैं , वे कितने अच्छे तरह से अपने देश , प्रदेश और अपने बारे मैं सोचते होंगे , और जो किसी भी तरह के बह्काबे मैं नही आते होंगे । तो उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है की वे निष्पक्ष और तात्कालिक लाभों को दरकिनार कर अपना स्पष्ट वोट देकर अपने लिए उपयुक्त प्रतिनिधियों को चुन पाते होंगे । कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें अपनी रोजीरोटी के जुगाड़ की चिंता के चलते देश , प्रदेश और देश की राजनीति के बारे मैं सोचिने की फुर्सत ही नही हैं । राजनीति अब तो शहर क्या हर गाँव गाँव मैं समा चुकी हैं । गाँव मैं पंचायत स्तर से लेकर हर छोटे छोटे स्तर के संगठनो के लिए होने वाले चुनावों मैं राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर की पार्टी का दखल रहता है , तो ऐसे मैं जनता किसी न किसी पार्टी की विचारधारा से प्रेरित हुए बिना नही रह सकेगी । स्वाभाविक है की जनता अपनी विचारधारा वाली पार्टी के सही और ग़लत कारनामे का समर्थन करते हुए नजर आएगी । अतः ऐसे मैं जनता के निष्पक्ष और पूर्वाग्रह से रहित नही कहा जा सकता है । इन्ही सब बातों का हा प्रभाव ही कहा जा सकता है की आज पार्टी से जुड़े आमजन पार्टियों द्वारा आयोजित किए जाने वाले बंद , हड़ताल और धरनों और जुलुशों मैं बिना किसी हिचक के भाग लेते हैं ।
अतः देश के हर राजनैतिक घटनाक्रमों पर अब यह कहना बेमानी साबित होता है की जनता ही इसका सही जवाव देगी । अपने प्रतिनिधियों को चुनने के वोट के अधिकार के आधार पर देश के राजनेताओं और राजनीति को सुधारने की उम्मीद करना उचित जान नही पड़ता है । एक बार प्रतिनिधियों को चुनने के बाद तो जनता को आगामी चुनावों तक उनके चुनिन्दा नेताओं के कारगुजारियों को देखने हेतु बाध्य और मजबूर होना पड़ता है । एक बात यह भी है की जनता को पार्टियों द्वारा थोपे गए प्रतिनिधियों को चुनने हेतु बाधा होना पड़ता हैं । जनता को न तो उनका अतीत जानने का अधिकार है और न चुनने के बाद उनका भविष्य । वे पहले क्या थे और अब वे क्या हो गए हैं । जिस जनता के नाम पर देश मैं शासन होता है आज वही इन राजनैतिक पार्टी और राजनेताओं द्वारा छली जा रही हैं ।
अतः देश मैं चल रहे इस प्रकार के छदम और कलंकित होती राजनैतिक कारगुजारियों पर रोक लगाना , जनता के सहारे तो असंभव ही जान पड़ता है ।

सोमवार, 14 जुलाई 2008

केन्द्र की हलचल पर एक नजर !

करार पर कई दिनों से U.P.A के घटक दलों के इनकार और इकरार का घटनाक्रम चल रहा था और अब यह अंजाम तक पहुच ही गया । U.P.A के साथ पिछले चार वर्षों से तू तू मैं मैं करते खड़े सहयोगी दल वाम मोर्चा ने समर्थन से हाथ खींच ही लिया एवं सरकार को अल्पमत मैं ला खड़ा दिया है । वाही सरकार के कुछ सहयोगी दल अभी भी सरकार के साथ खड़े हैं । इन घटनाक्रमों के चलते सरकार और सोनिया के धुर विरोधी दल सपा अब सरकार के साथ आ खड़े होने को लालायित हैं वह भी अपने पुराने सभी गिले शिकबे भूलकर । अब जन्हा सरकार से सहयोगी दलों का अलग हटना और वन्ही नए विरोधी दलों का सरकार से जुड़ने का अपना अपना नफे और नुक्सान का गणित हो सकता है , अतः अलग अलग लोगों के लिए इसका अलग अलग मत और सोचना हो सकता है .

जन्हा कांग्रेस पार्टी सरकार को बचाने की कवायद मैं जुट गई है वाही अभी तक राष्ट्रीय राजनीति के परिद्रश्य से हासिये पर पड़े क्षेत्रीय , छोटे दलों और निर्दलियों की महत्व्कांचा जाग गई है । उनके लिए यह अवसर होगा अपनी पूरी कीमत वसूलने का , मौका होगा सौदाबाजी का और मौका होगा अपने प्रतिस्पर्धी को पछाड़कर अच्छा से अच्छा ओहदा प्राप्त करने का । ऐसे समय मैं जन्हा कुछ दल सरकार मैं शामिल होकर और सरकार के प्रमुख दल के साथ मिलकर सत्ता की शक्ति का प्रयोग कर विरोधी दलों के बढ़ते हुए प्रभाव को कम करने का प्रयास करेंगे । यह सब कुछ राज्यों मैं और केन्द्र के चुनाव के मद्देनजर किए जायेंगे। इसी के मद्देनजर सरकार की जन विरोधी नीतियों और करार के नुक्सान के मुद्दे को कारण बताकर सरकार को गिराने का प्रयास करेंगे विरोधी दल ।
अब रहा देश और जनता का सवाल वह तो अभी हासिये मैं चला गया है , यंहा सिर्फ़ इस बात की चिंता है की सरकार को कैसे बचाया जाए , वाही विरोधी दल इस प्रयास मैं लगे है की किसी भी तरह सरकार को गिराया जाए । जनता यह सब देख रही है और देखने को मजबूर हैं । क्योंकि उसे तो समय का इंतज़ार है , फिर भी एक बात राजनैतिक बखूबी जानते हैं की हमारे देश की जनता बड़ी भोली है यदि उसे चुनाव के नजदीक वाले समय मैं अच्छा अच्छा दिखाया जाए और दिया जाए तो वह पुराने दिनों के दुःख दर्द और उनके साथ हुए धोखे और दगाबाजी के खेल को भूल जाती हैं । और तात्कालिक सुखों की खुमारी मैं वह एक बार पुनः वाही गलती करने को तैयार हो जाती है जो की पहले की थी । अब सब कुछ तो आने वाले समय के गर्त मैं छुपा है की ऊंट किस करवट बैठेगा । फिर भी देश मैं चल रही यह उठा पठक जरूर कुछ नया समीकरण पैदा करेगी - अच्छा या बुरा यह तो वक़्त ही बतायेगा ।

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

खेल है कुर्सी का - न कोई दोस्त न कोई दुश्मन !

जनता बेकार मैं अपने दल और नेताओं के नाम पर आपस मैं लड़ती रहती है और दोस्त क्या भाई को भी दुश्मन बना डालती है । और आपस मैं लड़कर अपने समाज , गाँव और शहर की फिजा बिगाड़ लेती है । किंतु नेतायों और दलों की जिस विचारधारा को लेकर लोग आपस मैं लड़ लेते है और अपनों को दुश्मन बना लेते हैं क्या वे नेता और पार्टी अपने विचारधारा पर अडिग रहते है । जिन नेताओं ने जनता के सामने वोट मांगते समय अपने विरोधियों की विचारधारा और गतिविधियों को को बुरा भला कहा और उनके ख़िलाफ़ खूब जहर उगला था , क्या वे आज भी अपनी विरोधी विचारधारा पर कायम है ।
राजनीति मैं संभवतः सिद्धांत और विचारधारा का कोई स्थान नही रहा है , राजनीति मैं अब अवसरवादिता और मौका परस्ती ने जगह ले ली है । यंहा सिर्फ़ यह देखा जा रहा है की सत्ता और पद कैसे प्राप्त किया जाए । अपनी कुर्सी को कैसे बचाया रखा जाए । पुरानी दुश्मनी को भूलकर कैसे लाभ का पद प्राप्त किया जाए । भले ही पुराने दोस्त दुश्मन बन जाए । यंहा न कोई दुश्मन है और न ही कोई दोस्त , बस अपने नफे नुक्सान की सहूलियत के हिसाब से रिश्ते बदलते रहते हैं । कभी कोई दोस्त तो कोई दुश्मन ।
देश की राजनीति का यह सिद्धांत विहीन और मूल्यहीन गिरते स्तर को देखकर जनता मन मसोस कर रह जा रही है क्योंकि इनके पास इन्हे चुनने का अधिकार तो है किंतु हटाने का अधिकार तो नही है , जिस विश्वास के साथ जनता ने इन लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाकर देश की और जनता की सेवा के लिए भेजा था , वे अपने तात्कालिक नफे और नुक्सान के मद्देनजर आज किस तरह सिद्धांत विहीन और मूल्यहीन राजनीति कर रहे हैं । जिस तरह से उसके साथ विश्वाश्घात हो रहा है , जनता अपने आप को छला हुआ महसूस कर रही है ।
देश मैं घट रहे इस तरह के राजनीतिक घटना क्रम के चलते जनता कंही अन्दर ही अन्दर विचलित और बैचेन है । जनता उनके चुने हुए प्रतिनिधियों की स्तरहीन कारगुजारियों को देखकर अचंभित और आक्रोशित हैं । इन सब घटनाक्रमों के चलते जनता का देश की राजनीति और राजनेताओं के प्रति विश्वाश उठने लगा है । लोग अब इस गिरती राजनीती के स्थान पर नए विकल्प और व्यवस्था की और आशा भरी निगाह से खोज और तलाश करने लगे हैं ।

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

मातापिता के ख्वाब और बढती प्रतिस्पर्धा का शिकार होते बच्चे !

कहते है की जो ख्वाइश माता पिता अपने जीवन मैं पूरी नही कर पाते हैं , उस अधूरी ख्वाइश को वे अपने बच्चों के माध्यम से पूरा होते हुए देखना चाहते हैं । हर इंसान के मन मैं बचपन से एक सपना पलता है , हर इंसान अपनी रूचि के अनुसार क्षेत्र मैं एक मकाम हासिल करना चाहता है । कोई सफल गायक तो कोई डांसर , कोई डॉक्टर तो कोई इंजिनियर , कोई क्रिकेटर तो कोई फूटबाल का सफल खिलाडी , तो कोई अच्छी नौकरी पाना चाहता है । किंतु यह सम्भव नही की हर इंसान का हर ख्वाब पूरा हो , कुछ आर्थिक तो कुछ सामाजिक तो कुछ पारिवारिक और कुछ आशा के विपरीत अचानक आने वाली परिस्थितियां मन मैं पलने वाले ख्वाब को पूरा होने मैं बाधक बनती है । ऐसे मैं इंसान अपने अधूरे ख्वाब को दिल के किसी के कौने मैं छुपाये रखता है । किंतु माता पिता बनने के बाद अपने अधूरे ख्वाब को पूरा करने हेतु अपने बच्चे को माध्यम बनाते हैं । ऐसी स्थिती मैं वे यह सोचना भूल जाते हैं की हम जिस ख्वाब को पूरा करने हेतु अपने बच्चे पर जिम्मेदारी डाल रहे हैं क्या उनका बच्चा उसमे रूचि रखता है ? क्या वह उनके अधूरे ख्वाब को पूरा करने मैं सक्षम हैं ? बच्चे के भी अपने स्वयं के द्वारा गढे गए सपने होते हैं ऐसे स्थिती मैं माता पिता के ख्वाब और स्वयं के ख्वाब के बीच पेंडुलम बनकर रह जाता है

कुछ मामलो मैं तो माता पिता द्वारा अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बरक़रार रखने और झूठी शान दिखाने के चक्कर मैं बच्चे से उनकी योग्यता , क्षमता और रूचि के विपरीत कार्य और परिणाम प्राप्त करने हेतु दबाब बनाया जाता हैं ।

आज की बढती प्रतिस्पर्धा भी इन बातों के लिए जिम्मेदार हैं जो माता पिता और बच्चों की अपनी क्षमता से बढ़कर कार्य करने और रूचि के विपरीत क्षेत्र को चुनने हेतु बाध्य करता हैं ।

नतीजा यह होता है वाँछित परिणाम न दे सकने की स्थिती मैं कमजोर दिल और दिमाग वाले बच्चे दबाब बस टूट जाते हैं । अतः एक बंगाली टीवी नृत्य प्रतियोगिता की प्रतिभागी शिंजिनी सेन गुप्ता जैसे बच्चे , वांछित परिणाम न प्राप्त करने और अपने प्रदर्शन पर निर्णायक मंडल द्वारा की गई टिप्पणी से आहत होकर जीवन का संतुलन बरक़रार नही रख पाते हैं और टूट कर बेबस हो जाते हैं ।

अतः आवश्यक है की बच्चे की रूचि , योग्यता और क्षमता के अनुरूप ही उनसे परिणाम प्राप्त करने के आशा की जाए । उन पर उनकी क्षमता से अधिक प्राप्त करने हेतु अनावश्यक दबाब न बनाया जाए । बच्चे के असफल होने अथवा वांछित परिणाम प्राप्त करने की स्थिती मैं उन्हें प्रताडित और आलोचना करने की बजाय आगे और अच्छे प्रयास करने हेतु समझाइश और सलाह दी जाए।



बुधवार, 2 जुलाई 2008

सरकार चलाना है देश नही !

बड़ी मुश्किल से जोड़ तोड़ की राजनीति से तो सरकार बनाने का और सता सुख प्राप्त करने का मौका मिलता है , फिर कैसे इसे इतने आसानी से छोड़ दें । भई फिक्र तो सिर्फ़ सरकार को बचाने की है , देश से क्या मतलब है , देश और देश के लोगों का कुछ भी हो । वे आपस मैं लड़ें झगडें , मंहगाई की मार से बेहाल होते रहे , गरीबी की मार सहते रहें , राशन पानी ठीक से नही मिले , किसान आत्महत्या करता रहे , देश मैं भ्रस्टाचार का आलम बढ़ता रहे , पड़ोसी देश आँख दिखाकर सीमा की भूमि को हड़पता रहे या फिर देश मैं दंगे , हड़ताल , तोड़फोड़ और आगजनी की घटना होती रहे । देश के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दे को ठंडे बसते मैं डालकर , बस सरकार बचाने का प्रयास किया जाना है ।
सरकार बचाने के इस प्रयास मैं अपने सहयोगी दलों की जायज और नाजायज मांगो को मानना है , वे बात बात पर आँख दिखायेंगे , डरायेंगे और धमकाएंगे और इन सब से आँख फेरकर गांधीगिरी को अपनाकर उनसे हाथ मिलाते और गले मिलते रहेंगे , क्योंकि सरकार को लंबे से लंबे समय तक जो खीचना है ।
सरकार को बचाए रखने के लिए वक़्त पड़ने पर विरोधी और विपरीत विचारधारा वाले दलों और नेताओं से भी हाथ मिलाने मैं कोई परहेज़ नही करना है , भले है चुनाव के समय के जनता के सामने एक दूसरे के ख़िलाफ़ बुरा भला कहा है और जहर उगला है ।
सरकार बचाने के लिए लोगों को आपस मैं उलझाओं , उठाये गए क़दमों पर किसी वर्ग विशेष के दबाब पर वापस लो , या फिर वर्ग विशेष को खुश करने की नीति अपनाओ । ताकि सरकार को बचाया जा सके और साथ ही आगामी चुनाव हेतु अपना वोट बैंक तैयार किया जा सके ।
किंतु देश मैं सरकार बचाने का यह खेल देश के विकास को अवरुद्ध कर रहा , देश की अन्तराष्ट्रीय साख को हानि पंहुचा रहा है , देश के लोगों की मुश्किल को बढ़ा रहा और देश मैं अशांति ,असुरक्षा और अराजकता के माहोल को बढ़ा रहा है ।