सोमवार, 17 जुलाई 2017

बढ़ गयी है दूरियां मेरे ही अपनों से ।


कुछ यूँ ही बढ़ गयी है दूरियां मेरे ही अपनों से ।
जब से गढ़ ली है  दुनिया छोटे बड़े सपनों से ।
जिन रिश्तों ने संभाला था मुझे बड़े जतनों से ।
सब कुछ पाने की आपाधापी में हो गए अनजानों से ।
वक्त नहीं की कर सकूँ खुलकर बातें आसमानों से ।
बस उलझते रहता हूँ कल मिलने वाले परिणामों से ।
वापस लौट आ दीप अब न कर हरकतें नादानों से ।
अब रोक ले , बाहर निकल आ इन बढ़ते अरमानों से ।
काश रुक जाये  रिश्तों का दरकना ऐसे प्रयत्नों से ।
वही  मेरी छोटी सी दुनिया फिर मिल जाये मेरे अपनों से ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. ज़्यादा की चाह हमें अपनों से दूर करती जा रही है, जबकि ऐसे ज़्यादा होकर भी हम और कम हो जाते हैं, काश वक़्त रहते जान जाएं!

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  2. शाह नवाज़ जी आपकी मूल्यवान सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत शुक्रिया ।

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