कुछ यूँ ही बढ़ गयी है दूरियां मेरे ही अपनों से ।
जब से गढ़ ली है दुनिया छोटे बड़े सपनों से ।
जिन रिश्तों ने संभाला था मुझे बड़े जतनों से ।
सब कुछ पाने की आपाधापी में हो गए अनजानों से ।
वक्त नहीं की कर सकूँ खुलकर बातें आसमानों से ।
बस उलझते रहता हूँ कल मिलने वाले परिणामों से ।
वापस लौट आ दीप अब न कर हरकतें नादानों से ।
अब रोक ले , बाहर निकल आ इन बढ़ते अरमानों से ।
काश रुक जाये रिश्तों का दरकना ऐसे प्रयत्नों से ।
वही मेरी छोटी सी दुनिया फिर मिल जाये मेरे अपनों से ।
ज़्यादा की चाह हमें अपनों से दूर करती जा रही है, जबकि ऐसे ज़्यादा होकर भी हम और कम हो जाते हैं, काश वक़्त रहते जान जाएं!
जवाब देंहटाएंशाह नवाज़ जी आपकी मूल्यवान सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत शुक्रिया ।
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