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बुधवार, 30 अप्रैल 2008

आज का शिक्षित बेरोजगार युवा !

आज का शिक्षित , आज कल बेरोजगारी और बेकारी की मार झेल रहा है । रोजगार के लिए दर दर की ठोकरे खाते हुए इधर उधर भटक रहा है । हाथ मैं न कोई हुनर हैं की स्वयं का कोई हुनरमंद व्यवसाय शुरू कर सके । घर का वातावरण और परिस्थितियां ऐसी नही है की पढ़ाई के लिए पूर्णतः अनूकूल वातावरण मिल सके । अच्छी और उच्च पढ़ाई के लिए अच्छी किताबे और त्युसन पर खर्च कर सके । अतः एक औसत दर्जे की पढ़ाई कर रह जाता हैं । फलस्वरूप अर्जित शिक्षा के माध्यम से उच्च पदों और उच्च नौकरी को पाने की लालसा भी नही रख सकता है । सिर्फ़ हिसाब किताब वाले बाबुगिरी के कार्य और लिखाई पढ़ाई के कार्य अलावा कोई अन्य कार्य करने मैं अपने आप को समर्थ नही पाता है । क्योंकि अभी तक जो शिक्षा पाई है उससे सिर्फ़ यही कर सकता है । इस शिक्षा को ग्रहण करते हुए अपने पारंपारिक और पुरखो से चले आ रहे हुनरमंद व्यवसाय को भी छोड़ और भूल चुका है । शिक्षा ग्रहण करने के बाद अपने पारंपारिक व्यवसाय को करने की इक्षा नही रह जाती है । आज की सिनेमा और टीवी के कार्यक्रमों ने और भी पतन की और पहुचाया है । आजकल ज्यादातर समय इन्ही मैं बिताता है , उनसे प्रेरित होकर हमेशा अच्छे सुख सुबिधाओं को पाने और सुंदर जीवन साथी को पाने के ख्वाव सजोते रहता है भले ही अच्छा हुनर और अच्छा शारीरिक सौष्ठव और सुन्दरता न हो और ये सब जल्द से जल्द कम परिश्रम और आसान रास्ते से पाना चाहता है । दिनोदिन भौतिकवादी और पाश्चात्य संस्कृति के नजदीक पहुच रहा है । वे ज्यादा भाने लगी है ।
बेरोजगार और बेकार रहने के कारण घर वाले भी परेशान रहने लगे हैं और घर मैं एवं समाज मै निकम्मा और नाकारा समझकर हेय दृष्टि से देखा जाना लगा हैं । धीरे धीरे निराशा घेरने लगती है , जिससे समाज और दुनिया से मोह भंग होने लगा है । कम से कम भावी युवाओं जो की देश का कल का भविष्य है के बारे मैं सोचते हुए कब इन प्रतिकूल परिस्थितियों को आवश्यकता अनुरूप - अनुकूल परिस्थितियां मैं बदला जाएगा ।

प्रतिक्रिया - बुद्धिजीवी ब्लॉग पाठक वर्ग द्वारा ब्लॉग पढने और उस पर प्रतिक्रिया देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद । मेरे ब्लॉग के लेखन मैं उन पिछडे और ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं की बात कर रहा हूँ जो बड़ी मुश्किल से जैसे तैसे अपनी पढ़ाई पूरी करते हैं , उन्हें न तो ठीक से कोई मार्गदर्शन देने वाला मिलता है और न ही उचित अवसरों की जानकारी होती है । वे आर्थिक रूप से उतने सक्षम भी नही होते हैं और न ही उनके स्थानीय स्तर पर ऐसे श्रोत होते हैं की वे आर्थिक रूप से आत्म निर्भर बन सके ।

मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

चियर्स गर्ल्स की जगह चियर्स बाय क्यों नही .

आई पी एल के २० - २० क्रिकेट मैं हर सुखद क्षण मैं हर्षो उल्लास व्यक्त करने के लिए चियेर्स गर्ल्स की उपस्थिति सुनाश्चित की गई है । किंतु जिस उन्मुक्त और खुले रूप मैं पाश्चात्य संस्कृति अनुरूप उसे अपनाया गया है वह विवाद का विषय बना हुआ है । ऐसे स्थिति मैं विरोध होना स्वाभविक हैं । इनके इस उन्मुक्त प्रदर्शन से मैदान मैं खेल रहे खिलाडियों का भी ध्यान भंग हो रहा है । इन सबके इतर मैं दूसरी बात की और ध्यान दिलाना चाहता हूँ की हमेशा प्रदर्शन और आकर्षण के माध्यम के रूप मैं महिलाओं को ही क्यों चुना जाता है , पुरुषों को क्यों नही । अखवार और टीवी पर आ रहे विज्ञापनों की बात करें या फिर कार्यालयों मैं रिसेप्स्निस्ट की बात हो , टीवी और रेडियों मैं चल रहे कार्यक्रमों की उदघोषिका की बात करें , सभी मैं महिला उम्मीदवार को ही प्राथमिकता दी जाती है । कई बार तो यह देखने मैं आता है की प्रचारित किए जाने वाले विज्ञापन या फिर अन्य किसी कार्यों का दूर दूर तक महिलाओं से सम्बन्ध न होने पर भी महिलाओं की उपस्थिति सुनिश्चित की जाती है ।
क्या इन कार्यों मैं पुरुषों की भागीदारी सुनिश्चित नही की जा सकती है । क्या चियर्स गर्ल्स की जगह चियर्स बाय को खुशी व्यक्त करने के लिए नही चुन सकते हैं । क्या जितना महत्व विश्व सुंदरी प्रतियोगिताएं पर ध्यान दिया जाता है क्या उतना तब्ज्जो के साथ विश्व श्रेष्ट पुरूष या फिर विश्व स्मार्ट पुरूष की प्रतियोगिता का आयोजन नही किया जा सकता है । क्या रेडियों और टीवी के विज्ञापनों , समाचारों और कार्यक्रमों हेतु पुरुषों को बराबरी से स्थान दिया नही जा सकता है ।
आख़िर ऐसा क्यों और कब तक ? क्या आगे वाले मैचों मैं चियेर्स बाय क्रिकेट के हर इन्जोय वाले मुमेंट पर खुशी व्यक्त करते हुए दिखेंगे ?

सोमवार, 28 अप्रैल 2008

उम्र से पहले व्यस्क होते बच्चे .

हाल ही मैं बच्चे द्वारा अंजाम दी जा रही कुछ घटनाएं जैसे अपने साथी छात्र की गोली मारकर हत्या करना , मनमानी करने से रोकने एवं टोकने पर अपने से बडो की हत्या करना , बड़े की बात बात पर चिड़ना और उन्हें झिडकियां देना , स्कूल और कॉलेज के अध्यापकों की बात नही मानना , स्कूल स्तर से ही विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होकर प्यार होने जैसी बात करना और ग़लत कदम उठाना , कम उम्र मैं ही बडो और व्यस्कों जैसी बातें करना । ये सभी बातें इस बात की और इंगित करती है की आज के बच्चे और देश के कल के भविष्य को उम्र से पहले व्यस्क बना रहे हैं ।
देश मैं हावी होती आधुनिकता वादी सोच और पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव ही है की आज देश मैं बच्चे मैं इस प्रकार की प्रवृत्ति पनप रही है । टीवी और सिनेमा मैं दिखाए जाने वाले उन्मुक्त और हिंसक द्रश्य इस प्रवृत्ति को बढ़ाने मैं प्रमुख भूमिका अदा कर रहे हैं । तो वही कंप्यूटर गेम भी इसमें आग मैं घी डालने का कार्य कर रहे हैं । आज की बड़े बड़े फेशंन शो की बात करे या फिर विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता जैसे आयोजन की , इनमे भी पहनावा और व्यवहार का स्तर किस स्तर का होता है यह किसी से छुपी नही है । एकल परिवार और मिलजुलकर साथ रहने की टूटती परिपाटी , आमिर माता पिता के द्वारा अपने बच्चों को पर्याप्त समय न देकर सिर्फ़ सभी सुख सुबिधाये जुटाकर अपने पारिवारिक जिम्मेदारी से इतिश्री समझना आदि के कारण परिवार ही बच्चे की पहली पाठशाला की अवधारणा को समाप्त करते नजर आते हैं । धर्मं , योग और आध्यात्मिकता से बढ़ती दूरी , भौतिकता वादी सोच और संस्कृति को अपनाना , ये भी बच्चे मैं मानसिक तनाव और असंतुलन पैदा करता हैं । शिक्षा संस्थाओं का भी नैतिक , सामाजिक समरसता और देश की संस्कृति आधारित शिक्षा को दरकिनार कर , पूर्ण रूप से व्यसयिकता को अपनानाकर सिर्फ़ नम्बरों के होड़ को बढावा देना , माता पिता द्वारा भी शिक्षा को सिर्फ़ अच्छे रोजगार और नौकरी प्राप्त करने के साधन के रूप मैं अपनाना , सरकार द्वारा भी लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति को देश की संस्कृति , परिवेश और परिष्ठितियाँ के अनुरूप ढाले बिना , वैसा वैसा की अपनाना आदि कारण भी बच्चों की सोच मैं घालमेल पैदा करते हैं ।
आवश्यकता है इन सभी कारणों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की , और उस अनुरूप परिस्थितियों मैं बदलाव लाकर उसे आवश्यकता अनुरूप अपनाने की । ताकि दिशा भ्रमित और दिग्भ्रमित होती भावी पीढ़ी को समय से पहले व्यस्क और भटकने से बचाया जा सके । देश और उनके स्वर्णिम भविष्य को उनकी मंजिल तक पहुचाया जा सके ।

शनिवार, 26 अप्रैल 2008

क्रिकेट को विवादों से दूर रखना होगा !

जबसे क्रिकेट मैं खेल भावना को दरकिनार कर व्यावसायिकता हावी हुई , तब से क्रिकेट एवं खिलाड़ियों के व्यवहार मैं गिरावट आनी शुरू हुआ है । पहले तो विज्ञापनों के माध्यम से पैसे कमाने की दौड़ और अब आई सी अल और आई पी अल जैसे संस्था के माध्यम से अपने को श्रेष्ठ साबित करने और धनवान बनाने की होड़ जारी है । उसी का परिणाम है की आज इन संस्थाओं द्वारा आयोजित हुए मैचों मैं दिनों दिन नए नए विवाद जुड़ते जा रहे हैं । चाहे हम चीयेर्स लीडर के विवाद की बात करें या फिर ताज़ा विवाद हरभजन सिंह द्वारा श्री संत को थप्पड़ मारने का हो । लगता है यह क्रिकेट की उच्चता का चरम है जो आज लोकप्रियता के झंडे गाडे हुए हैं , और उसी लोकप्रियता के सहारे लोग अब पैसा बनाना चाहते हैं , वह भी क्रिकेट को पूरी तरह व्यावसायिकता का जामा पहनाकर । उसके आगे टीम भावना और खेल भावना गौण है । चूंकि अब एक ही देश के एक ही टीम के खिलाड़ी अपने को अधिक पैसा कमाने और श्रेष्ठ साबित करने की होड़ मैं अपनी ही राष्ट्रीय टीम की सीनियर और जूनियर खिलाडी की जिम्मेदारी और भावना को दरकिनार कर आज प्रतिद्वंदी की तरह व्यवहार कर रहे हैं । क्या यह प्रतिद्वंदी पूर्ण भावना यह आयोजित खेल के समाप्त होते ही ख़त्म हो जायेगी या फिर एक चिंगारी की तरह कंही दबी रहेगी । चीयर लीडर्स को शामिल किया जाना ग़लत नही है , उसकी धारणा को वैसा का वैसा अपनाने की बजाय , उसे देश की संस्कृति और परम्परा की अनुरूप ढालकर अपनाया जाना चाहिए था ।

अतः खेलों को बढावा दिया जाना और उसमे अन्य नामी संस्थाओं और प्रख्यात लोगों द्वारा भाग लिया जाना अच्छी बात है , किंतु उसमे खेल भावना और खिलाड़ियों के बीच आपसी सद भाव कायम रहना बहुत जरूरी है । ताकि राष्ट्रीय टीम के रूप मैं खेलते समय टीम भावना बनी रहे । क्रिकेट विवादों से दूर रखकर क्रिकेट के उच्चता और लोकप्रियता को बनाया रखा जा सकता है ।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

अतिशयोक्ति पूर्ण विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए !

रोज सुबह आते दैनिक या साप्ताहिक अखबार हो , टीवी मैं चलने वाले नियमित कार्यक्रम हो या फिर रेडियो मैं चलने वाले प्रोग्राम हो या मोबाइल मैं आने वाले कंपनियों के संदेश हो । सभी मैं विज्ञापनों के माध्यम अपने उप्ताद एवं सेवाओं को श्रेष्ठ बताकर उन्हें बेचकर अधिक से अधिक लाभ कमाने की होड़ लगी हुई है । किंतु इन प्रचारित किए जाने वाले विज्ञापनों मैं कितनी सच्चाई है यह किसी से छुपी नही हुई है। फिर भी दिखाए जाने वाले विज्ञापनों से लोग प्रभावित हुए बिना नही रहते हैं , बच्चे तो प्रभावित होते ही है साथे ही बड़े लोग भी प्रभावित हुए बिना नही रहते हैं । और विज्ञापनों से प्रेरित होकर सेवाओं और उत्पादों को खरीदने हेतु प्रयास रत रहते है ।
इन विज्ञापनों के उत्पादों और सेवाओं के प्रचार हेतु नामचीन और प्रख्यात हस्तियों का आना , विज्ञापनों के माध्यम से उत्पादों और सेवाओं की बिक्री मैं महत्व पूर्ण भूमिका अदा करते हैं । अधिकतर उपभोक्ता और खरीददार वे होते हैं जो उत्पादों के गुणवत्ता के बारे ज्यादा नही सोचते हैं वे सिर्फ़ प्रचार करने वाले नामचीन और प्रख्यात हस्तियों के प्रति दीवानगी के कारण उनके द्वारा प्रचारित वस्तुओं और सेवाओं को खरीदते हैं ।
कई विज्ञापन तो इतने अतिशयोक्ति पूर्ण और अविश्विस्नीय होते हैं की प्रचारित उत्पादों के उपयोग के बाद भी आम जिन्दगी मैं वैसा परिणाम नही पाया जा सकता है जैसा की विज्ञापनों मैं दिखाया जाता है । इन विज्ञापनों से बच्चों मैं काफी बुरा असर पड़ता है । वे उनके आइडियल हीरो के द्वारा प्रचारित उत्पादों और सेवाओं को खरीदने हेतु लालायित तो रहते ही है साथ ही उनके द्वारा इन विज्ञापनों मैं किए गए अविश्वसनीय साहसिक कार्यों का अनुसरण करने की भी कोशिश करते है जो की उनके जीवन के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हो सकता हैं । बेसमय आने वाले इन विज्ञापनों से उपभोक्ताओं को परेशानी तो होती है साथ ही उनकी निजी जिन्दगी मैं खलल पैदा होती हैं । इन विज्ञापनों मैं काम करने हेतु नामचीन और प्रख्यात हस्तियों को भारी धन राशी भी दी जाती है जिसकी वसूली आम उपभोक्ता से उत्पादों की कीमतों मैं जोड़कर वसूल की जाती है ।
अतः ऐसे विज्ञापनों मैं रोक लगानी चाहिए , जो सच्चाई से कोसों दूर हैं और जो आम उपभोक्ता को भ्रमित करते हैं इन विज्ञापनों मैं लगने वाले धन की वसूली भी उपभोक्ता से करते है ।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

समय का प्रबंधन मुश्किल होते जा रहा है !

बुजर्गो ने कहा है की समय की कीमत समझनी चाहिए , बीता समय कभी लौट कर नही आता है . किंतु जिस देश मैं लोग किसी कार्य मैं देरी करना अपनी शान समझते है क्या वे समय का प्रबंधन करने मैं सक्षम है ? क्या समय की क़द्र करना हमारे हाथ मैं है ? हम मैं बहुत से कहेंगे की समय का प्रबंधन करना हमारे हाथ मैं है ? किंतु आज के दौर मैं जंहा लोग बढ़ रहे है और उसी अनुपात मैं संसाधन बढ़ने के बजाय कम होते जा रहे है तो आवश्यक सुबिधायें जुटाने के फेर मैं हम अपना बहुत सारा कीमती समय गवा देते हैं . और ये ऐसी व्यवस्थाये हैं जिसमे लगने वाले समय का प्रबंधन करना हमारे बस की बात नही है . जैसे आपको कही यात्रा पर जाना हैं तो , टिकट को प्राप्त करने हेतु लम्बी कतार लगाकर समय को गवाना , यात्रा हेतु प्रयोग किए जाने वाले वाहनों का निर्धारित समय पर न तो आना और न ही पहुचना । बैंकों मैं विभिन्न गतिविधियों हेतु , चाहे वह साधारण काउंटर हो या फिर ऐ टी एम् का काउंटर हो उसके लिए भी लम्बी कतार मैं खड़े रहकर समय को मजबूरी बस बेकार जाने देना . इस प्रकार और भी कई कार्य जैसे स्कूल , कॉलेज के कार्य , गैस सिलेंडर भरवाना , राशन प्राप्त करना , सिनेमा की टिकेट लेना , सरकारी कार्यालयों और दफ्तरों से संबंधित कार्य एवं दैनिक जीवन के अन्य कई आवश्यक कार्य , जिसमे लम्बी लम्बी कतार मैं लगे बगेर कार्य संपादित किया जाना सम्भव नही है , इसमे समय का जाया होना लगने वाली कतार पर निर्भर होता है , जो की हमारे हाथ मैं नही होता है ।
कुछ हम जनता की नादानिया और सरकार की नीतियों की खामियां , दोनों मिलकर समय को नष्ट करने हेतु हमें मजबूर करती है . इस प्रकार की परिस्थितियां न चाहते हुए भी लोगों का कीमती समय बरबाद तो करती ही है साथ ही उतने समय की मानव संसाधन की कीमती उर्जा भी बेकार जाती है , जिसका की उपयोग समाज तथा देश के हित मैं देश के विकास हेतु किया जा सकता है . क्या हमें इस प्रकार कतार मैं खड़े रहने की परम्परा से मुक्ति मिलेगी ? लगता है बढ़ते हुए लोग और अविवेकपूर्ण और अँधा धुंद तरीके से उपयोग के कारण कम होते प्राकृतिक और कृत्रिम संसाधान और सरकार की अदूरदर्शी नीतियां ये सभी दिनों दिन आम लोगों की समस्याओं की कतार को और लम्बी करते जायेंगे और समय की क़द्र करने जैसी बात हमारे बस की नही रहेगी ।

एक हिंदुस्तानी की डायरी: लिखें तो ऐसा कि दूसरे लोग जुड़ते चले जाएं

कोई समय की क़द्र करे तो कैसे !

बुजर्गो ने कहा है की समय की कीमत समझनी चाहिए , बीता समय कभी लौट कर नही आता है . किंतु जिस देश मैं लोग किसी कार्य मैं देरी करना अपनी शान समझते है क्या वे समय का प्रबंधन करने मैं सक्षम है ? क्या समय की क़द्र करना हमारे हाथ मैं है ? हम मैं बहुत से कहेंगे की समय का प्रबंधन करना हमारे हाथ मैं है ? किंतु आज के दौर मैं जंहा लोग बढ़ रहे है और उसी अनुपात मैं संसाधन बढ़ने के बजाय कम होते जा रहे है तो आवश्यक सुबिधायें जुटाने के फेर मैं हम अपना बहुत सारा कीमती समय गवा देते हैं . और ये ऐसी व्यवस्थाये हैं जिसमे लगने वाले समय का प्रबंधन करना हमारे बस की बात नही है . जैसे आपको कही यात्रा पर जाना हैं तो , टिकट को प्राप्त करने हेतु लम्बी कतार लगाकर समय को गवाना , यात्रा हेतु प्रयोग किए जाने वाले वाहनों का निर्धारित समय पर न तो आना और न ही पहुचना । बैंकों मैं विभिन्न गतिविधियों हेतु , चाहे वह साधारण काउंटर हो या फिर ऐ टी एम् का काउंटर हो उसके लिए भी लम्बी कतार मैं खड़े रहकर समय को मजबूरी बस बेकार जाने देना . इस प्रकार और भी कई कार्य जैसे स्कूल , कॉलेज के कार्य , गैस सिलेंडर भरवाना , राशन प्राप्त करना , सिनेमा की टिकेट लेना , सरकारी कार्यालयों और दफ्तरों से संबंधित कार्य एवं दैनिक जीवन के अन्य कई आवश्यक कार्य , जिसमे लम्बी लम्बी कतार मैं लगे बगेर कार्य संपादित किया जाना सम्भव नही है , इसमे समय का जाया होना लगने वाली कतार पर निर्भर होता है , जो की हमारे हाथ मैं नही होता है ।
कुछ हम जनता की नादानिया और सरकार की नीतियों की खामियां , दोनों मिलकर समय को नष्ट करने हेतु हमें मजबूर करती है . इस प्रकार की परिस्थितियां न चाहते हुए भी लोगों का कीमती समय बरबाद तो करती ही है साथ ही उतने समय की मानव संसाधन की कीमती उर्जा भी बेकार जाती है , जिसका की उपयोग समाज तथा देश के हित मैं देश के विकास हेतु किया जा सकता है . क्या हमें इस प्रकार कतार मैं खड़े रहने की परम्परा से मुक्ति मिलेगी ? लगता है बढ़ते हुए लोग और अविवेकपूर्ण और अँधा धुंद तरीके से उपयोग के कारण कम होते प्राकृतिक और कृत्रिम संसाधान और सरकार की अदूरदर्शी नीतियां ये सभी दिनों दिन आम लोगों की समस्याओं की कतार को और लम्बी करते जायेंगे और समय की क़द्र करने जैसी बात हमारे बस की नही रहेगी ।

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

कुछ तो हमारे हाथ मैं है !

बेशक आज देश मैं मंहगाई मैं बेतहाशा ब्रद्धि हुई है । जिससे आम लोगों का जीना दूभर हो रहा है । लोगों को दो वक्त की रोटी जुटाने मैं भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है और सरकार और सरकार की नीतियां बढ़ती मंहगाई की रफ़्तार मैं रोक लगाने मैं असफल रही है .
किंतु हमारी कुछ खामियां भी इस बढ़ती मंहगाई के लिए जिम्मेदार हैं । जैसे हर छोटी छोटी बातों के लिए दूसरे पर निर्भर रहना हमारी नियति बनती जा रही है । अब हम अपनी हर जरूरतों के लिए दूसरों का मुंह ताकते रहते है . हम हमारी सम्रध प्रकृति से जुड़ी हुई संस्कृति और संस्कारों से विमुख होते जा रहे हैं . फलस्वरूप हमारी इस आदत का फायदा बड़े व्यापारी और विदेशी कंपनी उठा रही है . और वे चाहते भी यही है . हम शारीरक और मानसिक रूप से पंगु होकर दूसरों पर निर्भर हो जाएं .
जैसे हम अपनी सम्रध आयुर्वेदिक चिकित्सा जिसमे कई बीमारियों का इलाज घर पर ही है , को छोड़कर हर छोटी छोटी बात पर अंग्रेजी दावा पर निर्भर है . नीम्बू पानी , लस्सी और पोष्टिक खाद्य पदार्ध को छोड़ कर विदेशी खाद्य पदार्थ जैसे ठंडा पेय , पिज्जा और बर्गर को अपनाना . विदेशी पहनावा और विदेशी सौन्दर्य प्रसाधन साधनों को अपनाना .
घर पर बड़ी , पापड़ और अचार बनाना , त्याहरों मैं मिठाई और पकवान बनाना , नहाने और बाल धोने के लिए देशी नुस्खे अपनाना । ये सब तो हम भूलते जा रहे है और चौपाटी , होटल और रेस्तारों की संस्कृति को अपनाने लगे है . इस प्रकार हर छोटी छोटी सी चीजों के लिए दुकानों और बाजारों की और दौड़ना . अतः दूसरों पर बढ़ती निर्भरता देश मैं मंहगाई बढ़ाने मैं महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं ।
आवश्यकता है इन छोटी बातों पर ध्यान देकर अपनी पुरानी परम्परा की और लौटने की . जैसे घर पर ही घरेलु समानो को बनाना . घर की खाली जगहों और क्यारियों मैं सजावटी पौधों की अपेक्षा सब्जियों और फलों के पौधों को स्थान देना . देशी घरेलू आयुर्वेदिक चिकित्सा की और लौटना . नजदीक के स्थानों हेतु इधनो से चलने वाले वाहनों के स्थान पर पैदल और मानव श्रम आधारित वाहनों को तरजीह देना . सामुहिक रूप से वाहनों के स्तेमाल को बढावा देना . कृषि कार्य मैं देश उन्नत कृषि यंत्रों के उपयोग और जैविक और गोवर खाद को बढावा देना । इस प्रकार कई छोटी छोटी बातों को ध्यान मैं रखकर , जीवन मैं हर छोटी छोटी बातों के लिए दूसरों पर निर्भरता को कम कर अपने हिसाब से बाज़ार को नियंत्रित कर मंहगाई को तो रोक सकेंगे साथ ही धन के विदेश मैं प्रवाह को भी रोक सकेंगे .

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

अपनी विफलता से जनता का ध्यान हटाने का प्रयास !

हाल ही मैं कांग्रेस पार्टी के कुछ नेताओ ने राहुल गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के शागुफे को छेड़कर देश की मुख्य समस्या को सुलझाने मैं हाथ लगी असफलता से लोगों का ध्यान बाटने का एक प्रयास नजर आता है । नही तो क्या वजह थी की इस समय अचानक प्रधान मंत्री बनने की बात को छेड़ा गया है । अभी तक सरकार देश के परमाणु करार के विवाद सहित अन्य देश की प्रमुख समस्यायों को सुलझाने मैं तो असफल रही है , और अब बढ़ती हुई मंहगाई को रोकने मैं अपने आप को सरकार असहाय सी महसूस कर रही है । उसके अपने घटक दल ही अब इस बढ़ती मंहगाई को लेकर सरकार को घेरने मैं लगे हैं और कुछ घटक दल पहले की तरह विरोध करने का नाटक कर रहे हैं । नजदीक आते लोकसभा के चुनाव के कारण , सरकार और सरकार मैं बैठे जनता के नुमाइंदे की छट पटा हट उनके कुछ बेसिर पैर के बयानों से जाहिर होती है , जैसे की एक केंद्रीय मंत्री बढ़ती मंहगाई के लिए गरीबों द्वारा दो वक़्त का खाना खाया जाना बताया जा रहा है तो कुछ इसे अन्तर राष्ट्रीय स्तर से जोड़ कर बता रहे है । इस प्रकार के दुर्भाग्य पूर्ण बयानों से आम जनता के प्रति इनकी सोच प्रदर्शित होती है तथा वे जनता को नासमझ समझते है ।
जनता का सरकार से मोह भंग होते चला है , ऐसे मैं जनता का ध्यान इन समस्यायों से हटाने के लिए एक भावनात्मक मुद्दा का राग अलापा जा रहा है । हो सकता है जनता मंहगाई जैसी समस्या को इस मुद्दे से भुलाने की कोशिश करे , किंतु ऐसा प्रतीत नही होता है की इस बात से जनता बहलने वाली है । नजदीक आते चुनाव मैं जनता अपने वोट रुपी डंडा घुमाकर चमत्कार करने का माद्दा तो रखती है । अब तो यह वक़्त ही बताएगा ।

रविवार, 13 अप्रैल 2008

मंहगाई के सामने आत्म समर्पण करती सरकार !

देश मैं चारों और मंहगाई की हा हा कार मची हुई है । आम जनता इस मंहगाई की मार से त्राहि त्राहि पुकार रही है । किंतु प्रदेश तथा देश की सरकार किम कर्तव्य बिमूढ़ बनी बैठी है उनके पास न तो कोई ठोस कदम उठाये जा रहा है और न ही उनके पास कोई ठोस रणनीति है और अभी तक किए गए प्रयासों से ऐसा लगता है की सरकार इस बात को लेकर गंभीर नही है और सरकार बढ़ती मंहगाई के सामने घुटने टेकते नजर आ रही है । देश तथा प्रदेश की सरकारें एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ रही है । इन सरकारों द्वारा अपने स्तर से जमाखोरी और कालाबाजारी के ख़िलाफ़ कोई कारगर कदम उठाये गए हो ऐसा प्रतीत नही होता है । राजनैतिक दल भी एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर , न तो वे कोई इसका हल सुझा रहे हैं और न ही वे आपस मैं मिल बैठकर इसका समाधान निकालने का मानवीय और सार्थक प्रयास कर रहे हैं । बेचारी गरीब जनता इस मंहगाई की चक्की मैं पीसी जा रही है , उसे समझ मैं नही आ रहा क्या करें क्या न करें , उन्होंने ने जिनको अपना प्रतिनिधि बनाकर सरकार मैं भेजा है वे भी कुछ करते नजर नही आते है , आम जनता इन नेताओं की ग़लत नीतियों के परिणामों को भुगतने को मजबूर है ।
यदि देश तथा प्रदेश स्तर की सरकारें वाकई मैं इस समस्या को लेकर गंभीर है तो सरकार अपने अपने स्तर से उत्पादों पर लगने वाले विभिन्न करों मैं रियायत देकर मंहगाई की त्रासदी काफी हद तक कम कर सकती है । जमा खोरी तथा कालाबाजारी पर अंकुश लगाने हेतु ठोस और कड़े कदम उठा सकती है । सभी राजनीति दल जनता के हितों को ध्यान मैं रखते हुए एक दूसरे को कोसने की बजाय , आपस मैं मिल बैठकर कोई ठोस और कारगर हल निकाल सकते हैं । अधिकारियों , नेताओं और मंत्रियों के आगे पीछे चलने वाले ताम झाम और अन्या वी आई पी सुबिधयों और फिजूल खर्चे मैं कमी की जा सकती है । सार्वजनिक वितरण प्रणाली का और चुस्त दुरुस्त किया जा सकता है । अतः जरूरत है जनहित मैं इमानदारी से प्रयास किए जाने की ।

शनिवार, 12 अप्रैल 2008

मंहगाई के आगे घुटने टेकती सरकार !

देश मैं चारों और मंहगाई की हा हा कार मची हुई है । आम जनता इस मंहगाई की मार से त्राहि त्राहि पुकार रही है । किंतु प्रदेश तथा देश की सरकार किम कर्तव्य बिमूढ़ बनी बैठी है उनके पास न तो कोई ठोस कदम उठाये जा रहा है और न ही उनके पास कोई ठोस रणनीति है और अभी तक किए गए प्रयासों से ऐसा लगता है की सरकार इस बात को लेकर गंभीर नही है और सरकार बढ़ती मंहगाई के सामने घुटने टेकते नजर आ रही है । देश तथा प्रदेश की सरकारें एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ रही है । इन सरकारों द्वारा अपने स्तर से जमाखोरी और कालाबाजारी के ख़िलाफ़ कोई कारगर कदम उठाये गए हो ऐसा प्रतीत नही होता है । राजनैतिक दल भी एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर , न तो वे कोई इसका हल सुझा रहे हैं और न ही वे आपस मैं मिल बैठकर इसका समाधान निकालने का मानवीय और सार्थक प्रयास कर रहे हैं । बेचारी गरीब जनता इस मंहगाई की चक्की मैं पीसी जा रही है , उसे समझ मैं नही आ रहा क्या करें क्या न करें , उन्होंने ने जिनको अपना प्रतिनिधि बनाकर सरकार मैं भेजा है वे भी कुछ करते नजर नही आते है , आम जनता इन नेताओं की ग़लत नीतियों के परिणामों को भुगतने को मजबूर है ।
यदि देश तथा प्रदेश स्तर की सरकारें वाकई मैं इस समस्या को लेकर गंभीर है तो सरकार अपने अपने स्तर से उत्पादों पर लगने वाले विभिन्न करों मैं रियायत देकर मंहगाई की त्रासदी काफी हद तक कम कर सकती है । जमा खोरी तथा कालाबाजारी पर अंकुश लगाने हेतु ठोस और कड़े कदम उठा सकती है । सभी राजनीति दल जनता के हितों को ध्यान मैं रखते हुए एक दूसरे को कोसने की बजाय , आपस मैं मिल बैठकर कोई ठोस और कारगर हल निकाल सकते हैं । अधिकारियों , नेताओं और मंत्रियों के आगे पीछे चलने वाले ताम झाम और अन्या वी आई पी सुबिधयों और फिजूल खर्चे मैं कमी की जा सकती है । सार्वजनिक वितरण प्रणाली का और चुस्त दुरुस्त किया जा सकता है । अतः जरूरत है जनहित मैं इमानदारी से प्रयास किए जाने की ।

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

क्रिकेट पर क्षेत्र वाद और व्यसायिकता की बुरी नजर !

जब से क्रिकेट खेल मैं व्यवसायिकता , क्षेत्र वाद और धन की अपार वर्षा होनी शुरू हुई है , तब से क्रिकेट खेल की लोकप्रियता और उज्जवल भविष्य पर संकट के बादल मंडराना शुरू हो गया है । वैसे भी इस खेल ने लोगों के बीच मैं अन्य खेलों के अपेक्षा तेजी से लोकप्रियता और धन अर्जित किया है , लगता अब उसी तेजी से इसमे गिरावट आएगी । खेल को इस प्रकार क्षेत्र वाद मैं बाटने और व्यावसायिकता के तराजू तौलने के कारण दर्शक भी इसी आधार मैं बटते नजर आ रहे है । अब खेल मैं पहले जैसी राष्ट्रीय भावना न तो खिलाडी मैं और न ही दर्शकों मैं नजर आ रही है । पहले ही तो फिक्सिंग के मामले मैं इस खेल की बहुत ही किरकिरी हो चुकी है , जिससे काफी दर्शक का इस खेल से मोह भंग हो चुका था । बी सी सी आई द्वारा भी खेल को कम और अपना खजाना भरने मैं ज्यादा ध्यान दिया गया , खिलाड़ियों को खेल मैं तब्ब्जों देने के स्थान पर उनके द्वारा एड करवाना , किसी प्रायोजित स्थान पर भेजा जाना पहली प्राथमिकता रही है । इन्ही सब बातों के मद्देनजर कई बार बी सी सी आई के सेलेक्टर टीम के बीच मतभेद भी उभरकर सामने आए है । आई पी अल और आई सी अल द्वारा जिस प्रकार खिलाड़ियों की बोली लगाई गई , जिससे खेल और खिलाड़ी की गरिमा धूमिल हुई है और इससे दर्शक अपनी खेल भावना को लेकर काफी आहात हुए है । अपनी कीमत बढ़ाने के चक्कर मैं एक दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ मैं खिलाड़ियों के बीच सामंजस्य का अभाव पैदा किया है और खिलाड़ियों मैं खेल और टीम भावना मैं कमी आई है । ऐसी ख़बर है की शाहरुख़ खान उनके द्वारा प्रायोजित टीम के मैच हेतु टिकेट खरीदने मैं दर्शकों द्वारा कोई उत्साह नही दिखाने से खुश नही है जिससे लगता है उन्होंने जिस उत्साह के साथ ३०० करोड़ रूपये अपनी क्रिकेट टीम के लिए लगाया था , किंतु दर्शकों की घटती संख्या से अब उनका खेल से मोह भंग होने लगा है ।

अतः अब समय आ गया है की खेलों को इस प्रकार के व्यावसायिकता से दूर रखकर इसमे सिर्फ़ खेल भावना और टीम भावना को महत्व दिया जाना चाहिए । सभी खेलों को एक समान दृष्टि से देखा जाना चाहिए और उन्हें हर स्तर पर बराबरी से सहायता और मदद दी जाना चाहिए । खेल और खिलाड़ियों को पैसों के तराजू से नही तुलना चाहिए । अतः खेल को व्यसायिकता और क्षेत्र वाद से दूर रखकर , खेलों की सेहत का ख्याल रखते हुए खेल को राष्ट्रीय भावना के प्रसार और देश को एक सूत्र मैं बाँधने का एक अच्छा माध्यम बनाया जा सकता है।

मंगलवार, 8 अप्रैल 2008

दबी हुई टीस को अभीव्यक्त करने का मंच है ब्लॉग !

आसपास और दुनिया मैं होने वाली घटनाओ को देखकर मन मैं कसक और टीस सी उठती है और मन सोचता है इन बातों को किस से कहूँ और कैसे कहूँ । कौन मेरी बात को सुनेगा , मन बड़ा विचलित हो उठता था । अंदर ही अंदर एक द्वंद सा मचा रहता था । फिर एक दिन एक दैनिक समाचार पत्र मैं ब्लॉग के बारे मैं पढने को मिला , तो लगा की मुझे सही मंच मिला , जिसमे मैं अपनी बात लोगों के सामने कह सकूं और मन का बोझ हल्का कर सकूं । पहले भी मैं कई बार अपनी प्रतिक्रिया और बातों को पाठकों के पत्र कोलम मैं दैनिक समाचार पत्रों के मध्यम से कहता रहता था , किंतु उनकी व्यावसायिक मजबूरी कहे या कुछ और मेरी बातों को गाहे बगाहे ही स्थान दिया जाता था , और वह भी काफी काट छाट के बाद , हो सकता है सिर्फ़ ख्यातिनाम बड़े लेखकों को ही स्थान मिलता हो । मन मायुश होकर रह जाता था और सोचता था की मेरी बात को तब्ज्जो मिलना मुश्किल है , और मैं लिखना छोड़ देता था । किंतु भला हो ब्लॉग का की जिसने मुझे नया मंच और अवसर प्रदान किया है अपने प्रतिक्रिया और विचार अभिव्यक्ति का ।
पिछले तीन माहों से मैंने ब्लॉग लिखना शुरू किया है , किंतु मुझे बड़ी खुशी मिल रही है , अब तो यह एक नशा सा हो गया है , मेरा मन रोज कम से कम एक ब्लॉग तो अवश्य लिखना चाहता है और लिखे गए ब्लॉग मैं बुद्धिजीवी पाठक गन की उत्तसाह वर्धक प्रतिक्रिया मिलती है तो मन तो प्राफूलित हो जाता है । मेरा ब्लॉग लिखना तो शैशव अवस्था मैं है , आशा है बुद्धिजीवी पाठक महोदय और ब्लॉग महारथी के अस्शिर्वाद और मार्ग दर्शन से इसमे और निखार आयेगा । मेरे ब्लॉग लिखने मैं मार्ग दर्शन देने मैं रविरतलामी जी का भरपूर सहयोग मिला है , जिनका मैं दिल से आभारी हूँ और आशा करता हूँ की मुझे भी ऐसे ही मार्गदर्शन मिलता रहेगा । ब्लोग्वानी , चिट्ठाजगत और नारद के माध्यम से ब्लॉग को विश्व परिद्रश्य मैं उचित मंच मिलने मैं बड़ी ही महाताव्पूर्ण भूमिका रही है । वे भी कोटी कोटी धन्यवाद के पात्र है । इन पटल पर भारी मात्रा मैं हिन्दी ब्लॉग लेखकों को देखकर बड़ी ही खुशी होती है । कितने ही दबी हुई लेखक , रचनाकार और कवि जैसी प्रतिभाएं को इन पटल के माध्यम से उचित अवसर और मंच मिला है । बेशक ब्लॉग ऐसी प्रतिभाएं का उत्तसाह वर्धन और जोश बढ़ाने मैं बहुत ही बड़ा रोल अदा कर रहा है । इन प्रयासों से निश्चित रूप से ज्ञान और रचना का एक विशाल संग्रह हो रहा है जो आने वाली पीढ़ी के लिए बहुत ही उपयोगी साबित होगा । हिन्दी लेखन को एक नई दिशा और विश्व परिद्रश्य मैं नया मंच मिल रहा है , जो की हिन्दी भाषा को सम्रध बना रहा है । प्रयास्सों का यह कारवां विश्व मैं हिन्दी भाषा को विशिष्ट और वैश्विक भाषा का दर्जा दिला कर ही रहेगा ।
अतः निसंदेह यह कहा जा सकता है की ब्लॉग अपनी बात को कहने का एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है । जो बात अन्य मंच और माध्यम से नही कही जा सकती है वह पूरी शिद्दत के साथ अपनी पूरी बात ब्लॉग के माध्यम से देश ही नही सारे विश्व के सामने खुलकर कही जा सकती है ।

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

भारतीय चिकित्सा पद्धति को अपनाएँ !

०७ तारीख को विश्व स्वास्थ्य दिवस है । फिर वही आयोजन और भाषण । सबको बेहतर स्वास्थ्य स्वास्थ्य सुबिधायें देने की बात की जायेगी । किंतु स्थिति सुधरने की बजाय पहले से भी ख़राब होती जा रही है । महंगी होती इलाज की फीस , महंगी होती दवा और महंगी होती चिकित्सा शिक्षा । न कोई इसे सुधारने की स्पष्ट नीति और न कोई राहत पहुचाने वाली रीति। परेशानी तो आम जनता को होती है - मरता क्या न करता - अपने और अपने परिजनों के इलाज हेतु जोड़ तोड़ कर पैसों का इंतज़ाम करता है । हर सरकार की अपनी पहली प्राथमिकता जनता को बेहतर स्वास्थ्य सुबिधायें , शिक्षा और सुरक्षा उपलब्ध कराना होता है । किंतु प्राथमिक मुद्दे होने के बाद भी ये व्यवस्थाये दिनों दिन बाद से बदतर होती जा रही है । विश्व स्वास्थ्य दिवस के अवसर पर सभी के स्वस्थ्य जीवन की कामना करते हुए स्वास्थ्य सुबिधाओं की व्यवस्था मैं सुधार हेतु कुछ बातों पर विचार किया जाना लाज़मी है ।
बहु राष्ट्रीय कम्पनी का दबाब या फिर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव कहे अन्य क्षेत्र की भांति इसमें भी स्वास्थ्य सम्बन्धी हर छोटी छोटी समस्याओं पर महंगी एलो पेथी चिकित्सा पद्धति को अपनाने पर जनता और सरकार तुली हुई है । जबकि इसका इलाज घरेलु आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति से आसानी से हो जाता है और वह भी नाममात्र के खर्च और बिना कोई दुष प्रभाव के । सरकारी और निजी अस्पतालों को देखे तो सभी एलो पेथी चिकित्सा पद्धति पर आधारित है । बमुश्किल ही आयुर्वेद और अन्य चिकित्षा पद्धति पर आधारित अस्पताल देखने को मिलेंगे । सरकार भी अपने बज़त का बड़ा हिस्सा महंगी एलो पेथी चिकित्सा पर खर्च करती है । बड़े बड़े शोध और अनुसंधान कार्य इसी पद्धति के अंतर्गत किए जा रहे है । चिकित्सा शिक्षा के संस्थान भी इन्ही चिकित्सा पद्धति पर आधारित है । इनके अधिक से अधिक से विश्वविद्यालयों की संख्या है । पढ़ाई इतनी महंगी की आम आदमी अपने बच्चों को नही पढ़ा सकता है । इतनी महंगी शिक्षा ग्रहण करने के बाद चिकित्सकों से व्यवसायिकता की जगह मानव सेवा जैसी बातों की उम्मीद करना बेमानी साबित होगा । बहु राष्ट्रीय कम्पनिया दवाओं पर १००० गुना तक मुनाफा कमा रही है परिणाम स्वरूप दवाएं भी बहुत महंगी है ।
भारतीय परिवेश और प्रकृति के अनुसार भारतीय चिकित्सा पद्धति को विशेष स्थान देते हुए स्वास्थ्य नीति को बनाने की आवश्यकता है । एक सर्वे के अनुसार दुनिया मैं ऐसे ५७ देश हैं जन्हा प्रति १ लाख जनसंख्या पर २.३ से भी कम स्वास्थ्य सेवा प्रदाता है , जिसमे भारत भी शामिल है । सभी को समुचित स्वास्थ्य सुबिधाये उपलब्ध हो सके इसके लिए पर्याप्त स्वास्थ्य सेवक और चिकित्सक होने चाहिए । इस हेतु हर जिला स्तर पर एवं ब्लाक स्तर पर चिकित्सा शिक्षा आधारित विद्यालयों और महा विद्यालयों को खोला जाना चाहिए , ताकि स्थानीय और ग्रामीण स्तर के छात्र भी शिक्षा ग्रहण कर सके । इनमें १२ स्तर तक और महाविद्यालय स्तर तक डिग्री दी जा सके । चुकी बड़े डिग्री धारी तथा शहरी डॉक्टर ग्रामीण स्तर मैं स्वास्थ्य सेवा देने मैं कतराते हैं , इससे इस समस्या से मुक्ति मिलेगी और स्वास्थ्य सुबिधा प्रदान करने वाले सेवकों की भी संख्या मैं बढोतरी होगी । परंपरागत आयुर्वेदिक चिकित्षा पद्धति को अधिक से अधिक से बढावा देना चाहिए । इसे तथा इसके समकक्ष चिकित्षा पद्धति को प्राथमिक स्तर की शिक्षा मैं शामिल किया जाना चाहिए । देशी दवाएं और उन पर अनुसंधान और शोध पर जोर दिया जाना चाहिए । बहु राष्ट्रीय कम्नियों की मुनाफा खोरी पर रोक लगाकर दवायों की कीमत पर रोक लगाना चाहिए ।

तभी हम सभी के लिए बेहतर स्वास्थ्य सुबिधाओं की उपलब्धता की कामना कर सकते है।

रविवार, 6 अप्रैल 2008

जल पर मानव मात्र का ही अधिकार नही !

गर्मी क्या आई की फिर लगे हाय तौबा मचाने पानी के लिए । पड़ोस के लोग आपस मैं पानी के लिए लड़ रहे है तो पानी के लिए कोई आन्दोलन पर सड़क पर उतर आता है , तो कोई मेरी तरह कोई पानी बचाने की नसीहत देने लगता है कोई कहता है की वर्षा के जल को रोको तो कोई कहता है की पानी की वेर्वादी न करो । यह सब सिर्फ़ गर्मी के मौसम मैं पानी की समस्या रहने तक होता है और जैसे ही वारिश का मौसम आया सब कुछ भूलकर फिर अपने काम धाम मैं लग जाते है । किंतु इस बात पर हम गंभीरता से कब सोचेंगे यह तो वक्त ही जाने । फिर भी हमे समय रहते चैत जाना चाहिए ।

पानी बहुत कीमती हो गया है । कीमती तो पहले से था । किंतु हो सकता है भविष्य मैं वह पैसा देने पर भी नही मिले । और तो और उसे कृत्रिम रूप से पैदा भी नही किया जा सकता है । क्योंकि ऐसी वैज्ञानिक विधि भी इजाद नही हो पाई है और न ही ऐसी कोई जादू की छड़ी है जिसको घुमाकर सभी को दिलाई जा सके । जीवन के लिए अनमोल पानी या जल , जिस पर मानव मात्र नही वरन समस्त वनस्पति और प्राणी जगत का भी हक़ है । हमने उसे सहेजने की भी तो कोशिश नही की हैं । पहले से विद्यमान झरने , तलब , कुओं और बब्दियों को तो नष्ट होने की कगार पर पंहुचा दिया साथ ही नदी व नाले के अस्तित्व को भी खतरे मैं डाल दिया है । और तो और जमीन से निकलकर उसे बरवाद करने पर तुले हुए हैं । क्या हम अगला विश्व युद्ध करवाकर ही मानेंगे । अब तो हमें चेत जाना चाहिए । हर निजी तथा शाश्कीय बिल्डिंग मैं वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम अपनाकर , नए जंगलो को तैयार कर , नदियों व तालाबों , कुओं व बब्दियों का जीर्णोद्धार कर वर्षा का जल सहेजना होगा । बंजर व बेकार पड़ी निजी व राजस्व भूमि मैं निजी व शाश्किया संस्था के सहयोग से तलब खुदवाकर एवं नदी व नालों मैं बाँध बनाकर पानी को रोककर जल स्तर को बढाया जाना चाहिए । इनमे मछली पालन , अन्य जलीय खेती करवाकर और संचित जल को सशुल्क सिंचाई हेतु देकर आर्थिक लाभ का साधन बनाया जा सकता है । स्कूली शिक्षा एवं प्रचार प्रसार के माध्यम से लोगों को जल संग्रहण एवं जल के किफायती उपयोग हेतु प्रेरित किया जा सकता है । अतः इस हेतु समुचित प्रयास किया जाना चाहिए , तभी हम समस्त प्राणी जगत और वनस्पति जगत का ख्याल करते हुए विश्व को आने वाली बिभिशिका से बचा सकते हैं।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2008

मंहगाई सिर्फ़ आम जनता के लिए !

देश मैं मंहगाई को लेकर हाय तौबा मची हुई है । जनता से लेकर राजनैतिक दल , और यहाँ तक की सरकार तक इस मुद्दे को लेकर उहा पोह के स्थिति मैं है । क्या कर क्या न करें , सरकार और सत्ताधारी दलों को कुछ समझ मैं नहीं आ रहा है । केरल राज्य के चुनाव और लोकसभा के भी चुनाव नजदीक आ गए हैं , ऐसे मैं मंहगाई एक बड़ा मुद्दा बनकर उनके सामने आया है । बैठे बिठाये विरोधी दलों को भी एक नया मुद्दा मिल गया है , जिससे वह सत्ताधारी दलों को जनता के सामने कटघरे मैं खड़ा कर सकें । किंतु एक बात है की राजनैतिक दलों को जनता के नफे नुकसान से उतना सरोकार नही रहता है , जितना की उनकों इस बहाने अपनी और अपनी पार्टी की स्थिति को चमकाने की रहती है । बड़े उद्योगपति , व्यापारी वर्ग और नेतागण इससे ज्यादा प्रभावित तो नही हुए है किंतु आम जनता इस बढ़ती मंहगाई से आक्रोशित नजर आ रही है । इस मंहगाई ने सबके बज़त को बिगाड़ के रख दिया है । व्यापारी वर्ग तो मंहगाई बढ़ने पर अपनी वस्तुओं का दाम बढाकर अपनी आय मैं बढोतरी कर लेता है , ज्यादातर व्यापारी तो इस मंहगाई को लाभ के अवसर के रूप मैं बदल लेते है । मंहगाई बढ़ने पर तो वे अपने समानो कर दाम झट बढ़ा देते है किंतु कम होने पर दाम मैं कमी करने मैं देरी करते है । किंतु वास्तविकता यह है की जिस दर से मंहगाई बढ़ रही है उस अनुपात मैं न तो कर्मचारियों का वेतन बढ़ता है और न ही आम जनता की आय । फलस्वरूप आय और व्यय मैं भारी अन्तर उभर कर सामने आता है । लोगों को अपने खानेपीने , कपड़े , घूमने फिरने और अपने अन्य शौकों मैं कटौती कर घर के बज़त को संभालना पड़ता है । जो की उनके हाथ मैं रहता है । किंतु डॉक्टर की फीस और दवाएं , बच्चों की स्कूल की फीस , हर महीने का नल , मकान , बिजली , टेलीफोन , इंधन खर्च और अन्य मासिक किराये मैं कटौती करना न मुमकिन होता है । ऐसे मैं आम इंसान की जिन्दगी मैं भारी असंतुलन पैदा होने लगता है , वह इस प्रकार उत्पन्न भारी खाई को कैसे पाटे , इस उधेड़ बुन मैं घरेलु और सामाजिक वातावरण मैं भी तनाव और अशांति का माहोल बनने लगता है ।

आवश्यकता है आम नागरिकों के हितों को ध्यान मैं रखकर ठोस और प्रभावी आर्थिक नीति बनाने की । जमाखोरी पर सख्ती से रोक लगाने की और वितरण प्रणाली को ज्यादा कारगर ढंग से लागू करने की । तभी सुरसा से जैसे मुंह फाड़ते मंहगाई को काबू मैं लाया जा सकता है ।

लो बीत गया एक और #साल !

# फुर्सत मिली न मुझे अपने ही काम से लो बीत  गया एक और # साल फिर मेरे # मकान से ।   सोचा था इस साल अरमानों की गलेगी दाल , जीवन...