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सोमवार, 31 मार्च 2008

.हम खफा क्यों हों .

भाई हमारे बुजर्गों ने हमे हमेशा खुश रहने और जितना है उसमे ही संतोष कर जीने की सीख दी है । तो फिर दुनिया की बातों को लेकर हम खफा क्यों हों ? चाहे देश मैं कितनी ही महंगाई बढ़ जाए , देश के नेता जो चाहे मन मर्जी करें , चाहे गाय का चारा खा जाए , चाहे खूब आपस मैं नूर कुश्ती करे या चाहे देश को बेच दे , एक बार वोट लेकर पूरे पाँच साल मैं आए , पर हम खफा नही होंगे । अगले चुनाव मैं हम सारे गिले शिकवे को भूलकर और नशे की खुमारी मैं फिर से उन्हें ही वोट देंगे वह भी बिना खफा हुए ।
हमें तो कम मैं ही जिन्दादिली से जीना सिखाये गया है । जितनी चादर है उतने मैं ही पैर फैला कर सोना है , ज्यादा हुआ तो अपनी चादर को सुकोड़ कर या फिर काट कर छोटा कर लेंगे और उसी मैं सो जायेंगे । पानी के लिए लम्बी कतार लगाना है लगा लेंगे , स्कूलों मैं बच्चों की पढ़ाई का कचरा हो जाए , बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेंगे , सरकारी अस्पताल मैं डॉक्टर और दवा न हो तो न हो , प्राइवेट मैं जाकर इलाज करा लेंगे , राशन की दूकान न खुले तो न खुले और उसमे राशन न हो तो हम बाजार मैं जाकर ज्यादा पैसे मैं खरीद लेंगे । पर्याप्त बिजली न मिले , चोरी बढे , सड़क मैं गड्ड ही गड्ड हो , आवागमन के साधन ठीक से न मिले , वे समय पर नही आए और गाड़ी वाले मनमाना किराया वसूले , पर हम खफा नही होंगे । क्योंकि हमने सीखा है सदा मुस्कराते रहना । खुशी बाटना और खुशी देना । दूसरों को को नाखुश तो नही कर सकते हैं न । किसी कार्यालयों मैं किसी भी काम के लिए पैसा देना हो दे देंगे , कौन दफ्तर के लंबे चक्कर लगायेगा और सरकारी कर्मचारियों को खफा करेंगे और उन पर खफा होंगे ।
खफा होना और तनाव बढ़ाना स्वास्थ्य के लिए भी तो अच्छा नही होता है न , कौन अपना तथा दूसरों का बीपी बढायेगा और कौन समाज , अपने नगर और प्रदेश एवं देश के खुशनुमा माहोल को ख़राब करेगा । इसलिए भइया हमने तो सीखा है के बस कुछ भी हो जाए पर कभी खफा न होना , बस सदा मुस्कराते रहना और आपको भी कहेंगे की सदा मुस्कराते रहना , पर खफा न होना ।

क्यों न क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल घोषित जाए !

क्रिकेट के लोकप्रियता को देखते हुए आपके मन मैं भी यह बात उभर कर आती होगी की क्यों न क्रिकेट को देश का राष्ट्रीय खेल घोषित किया जाए। आज जबकि क्रिकेट बच्चो से लेकर बूढे तक का पसंदीदा खेल बन गया है । सभी लोग अपने कार्यों को छोड़कर सारा दिन इस खेल को न सिर्फ़ देखते हैं वरन खेलते भी हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इस खेल ने खेल जगत मैं देश को एक ने पहचान दिलाई है। क्रिकेट की खेल संस्था बी सी सी आई की भी विश्व मैं अच्छी धाक हैं। इस खेल की लोकप्रियता को देखते हुए इसे ओलंपिक खेलो मैं भी शामिल करने की सहमति बन चुकी है। साथ ही इस खेल से जुड़े सभी लोग चाहे वह खिलाड़ी हो , खेल संस्था या फिर मीडिया , सभी के लिए भरपूर पैसा है । अन्य खेलों की तुलना मैं यह खेल विश्व मैं बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए आई सी एल एवं आई पी एल जैसी नामी गिरामी संस्थाओं तथा अनिल अम्बानी , शाहरुख़ एवं प्रीती जिनता जैसी हस्तिया भी जुड़ रही है। सबसे बड़ी बात यह है की इस खेल के लिए ज्यादा कीमती खेल सामग्रियों के आवश्यकता नही होती है। ग्रामीण बच्चे तो एक बाल तथा बल्ले के रूप मैं एक लड़की के पत्टते से खेलते है । मीडिया द्वारा भी इस खेल को अन्य खबरों के अपेक्षा कुछ ज्यादा ही ताबज्जो दी जाती है । क्रिकेट के हीरो तो फिल्मी हीरो को मात कर लोकप्रियता के शिखर को चढ़ रहे हैं। जिस देश के लोगों की खेल के प्रति दीवानगी है की क्रिकेट जीतने पर उनके लिए ईद व दीवाली एवं हारने पर मातम होता है ।
तो क्यों न इस बात पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाना चाहिए
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कृपया अपनी प्रतिक्रिया देवे ।

शनिवार, 29 मार्च 2008

नम्बरों की होड़ मैं खोता बचपन .

दौर आया है परिक्षायों का , सभी छात्र इस उद्देश्य से जी तोड़ मेहनत कर रहे है की अधिक अधिक से नम्बर किसी भी तरह हासिल किया जाए । न रात का ख्याल न दिन का , न खाने का और न पीने का और न जागने का और सोने का . अपनी साख और व्यसयिकता चलते स्कूल मेनाज्मेंट और शिक्षक एवं साथ ही माता पिता द्वारा भी सख्त हिदायत दी जाते है की तुम्हे अच्छे से अच्छे नम्बर लाना है । दोस्तों के बीच भी अच्छे नम्बर लाने की होड़ भी है। अच्छे नम्बर लाकर अच्छे स्कूल या फिर अच्छे कॉलेज मैं दाखिला लेने की मजबूरी भी है।
इस प्रतिस्पर्धी एवं व्यावसायिकता परख शिक्षा वाले युग मैं जन्हा सिर्फ़ गहन अध्ययन आधारित ज्ञान को नहीं वरन उनके द्वारा प्राप्त नम्बरों को महत्व दिया जाता है , भले ही वह उस छात्र ने दिन रात रटकर शार्ट कट तरीके से प्राप्त किया हो । शिकशों द्वारा भी विषयों के गहन अध्ययन पर ध्यान न देकर कोर्स को पूरा करने के उद्देश्य से शार्ट कट तरीके से अच्छे नम्बर प्राप्त करने की शिक्षा दी जाती है । अच्छे नम्बर लाने की होड़ मैं माता पिता भी बच्चे को बंधुआ मजदूर के तरह पूरे समय पढ़ाई से बाँध रखते है । सुबह उठते ही स्कूल , स्कूल से फिर टुशन क्लास वह भी हर विषय के लिए अलग अलग जगह । बेचारा छात्र स्कूल व टूशन जाने मैं और सारे समय उनका होम वर्क करने मैं जुटा रहता है । कब वह खेलने कूदने बाहर जाए , कब वह सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों मैं भाग ले , और कब वह पारिवारिक सदस्यों के साथ समय बिताएं ।
परिणाम यह होता है की अपना बचपन और नैसर्गिक प्रतिभा को दरकिनार कर अच्छे नम्बर लाने की आपाधापी मैं कुछ तो अपना संतुलन और आत्मविश्वाश बनाये रखते हैं , किंतु कुछ कमजोर मन और आत्मविश्वाश व पढ़ाई मैं रूचि न रखने वाले बच्चे टूटकर ख़ुद को नुकसान पहुचाने वाले और आत्महत्या करने जैसे घातक कदम को उठाने हेतु मजबूर हो जाते हैं । आख़िर कब हमारी यह नम्बर आधारित शिक्षा पद्धति मैं बदलाब आएगा । इस सम्बन्ध मैं गाहे बगाहे बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों द्वारा आवाज उठाई जाती रही है किंतु समय के साथ वह भी कहीं गूम हो जाती है ।
आवश्यकता है लोर्ड मैकाले की क्लर्क को तैयार करने वाली शिक्षा मैं आमूल चूल परिवर्तन की । बच्चों की नैसर्गिक रूचि आधारित शिक्षा को बढावा देने की , जिसमे भारतीय परिवेश आधारित गुणवत्ता युक्त एवं प्रायोगिक शिक्षा को अधिक से अधिक स्थान मिले , उबाऊ पुस्तकों और बस्तों का बोझ कम हो , स्कूलों मैं तनाव रहित , सहयोगात्मक और दोस्ताना वातावरण निर्मित करने की , शिक्षा के व्यवसायी कारन पर रोक लगाकर नैतिक , सांस्कृतिक एवं व्यवहारिक शिक्षा पर जोर देने की । माता पिता को भी बच्चों के रूचि और रुझान को देखते हुए उनके विषय चयन और शिक्षा प्राप्ति पर ध्यान देना चाहिए । इस प्रकार शिक्षा पद्धति एवं प्रतिभा चयन तरीके मैं परिवर्तन एवं बच्चों की नैसर्गिक रूचि आधारित शिक्षा पद्धति अपनाने की । तभी हम अधिक से अधिक अंको को पाने की आपाधापी मैं खोते बचपन को बचा सकेंगे ।

शुक्रवार, 28 मार्च 2008

बिकने को तैयार हैं , बस खरीददार चाहिए !

एक समय था जब इंसान की कोई कीमत नहीं थी । इंसान अपने शरीर को ढोते हुए बहुत कम मैं भी गुजारा कर लेता था । अब इंसान चाहे वह बड़ी शक्शियत हो या आम इंसान , सभी कीमती हो गए हैं । क्योंकि इस उपभोग वादी संसार मैं सब कुछ बिकने को तैयार हैं । तो इंसान क्यों पीछे रहे । पहले मजबूरी मैं इंसान बिकने के लिए तैयार था और उसे बड़ी हेय की द्रष्टि से देखा जाता था । अब तो हर इंसान एक वस्तु या सामान के तरह बाज़ार मैं बिकने को तैयार है । हर इंसान की कीमत उसकी उपलब्धि और रुतबे के हिसाब से तय हो रही है । यहाँ तक की उसके अंग अंग की कीमत भी मिलने लगी है । आज देखो इंसान की कैसी बोली लग रही है , सांसदों , विधायकों और नेताओ की कीमत कहीं अपने पक्ष मैं वोट देने की लिए तो कहीं संसद मैं प्रश्न पूछने के लिए । खिलाड़ियों की तो बल्ले बल्ले हो रही है , आई पी एल , आई सी एल जैसी संस्था पैसा लेकर घूम रही हैं । क्या देश , विदेश के भी खिलाड़ी बिकने के लिए तैयार हैं । फिल्मी कलाकार बिकने के लिए तैयार है , यहाँ तक की वे शादी जैसे समारोहों मैं शरीक होने के लिए बिकने को तैयार हैं फिल्मों एवं रेम्प मैं जैसे चाहे चलने को तैयार है । गायक , अभिनेता , कलाकार , रचनाकार , लेखक तथा अन्य सभी प्रतिभाएं बिकने के लिए तैयार हैं । बस आपके जेब मैं पैसे होना चाहिए । दूल्हा अपनी नौकरी व व्यवसाय के दम पर तो दुल्हन अपनी सुन्दरता व नौकरी के दम पर बिकने को तैयार है । क्या सरकारी कर्मचारी / अधिकारी सभी इंसानों की मंडी मैं बिकने को तैयार हैं । आम आदमी के भी खरीदार भी हैं। कोई उनकी किडनी तो कोई आँख तो कोई उनका खून तो कोई उनकी पुरी बाडी खरीदने को तैयार हैं । इस भौतिकवादी युग मैं सब एक सामान बनकर बिकने के लिए तैयार हैं । हाँ एक बात यह हो सकती है की फिर आपकी जिन्दगी आपकी न रहे , आपकी इक्छा , आपकी भावना , आपका मन , आपके समस्त गतिविधियाँ खरीददार के हर एक इशारे के लिए मोहताज हो । सच ही तो हो आज का इंसान इमान व भावना विहीन होकर एक वस्तु अर्थात सामान बनकर दौलत की मंडी मैं बिकने के लिए तैयार खड़ा है ।

बुधवार, 26 मार्च 2008

दिग्भ्रमित और दिशाहीन होते बच्चे.

बच्चो द्वारा हिंसक घटनाओ को अंजाम देना आम बात होते जा रही है , कुछ घटनाओं ने सारे देश को सोचने के लिए के लिए मजबूर कर दिया । चाहे वह गुडगाँव के यूरो स्कूल मैं साथी छात्र को गोली मारने की घटना हो या किशोरों द्वारा अंजाम दी जाने वाली कोई लोमहर्षक घटना हो । ये घटनाएँ आने वाली पीढ़ी के भविष्य की भयावह तस्वीर को पेश करती है । बच्चे देश का भविष्य हैं । तो क्या हम यह कहें की देश का कल का भविष्य आज के बच्चे उच्च्श्रन्खाल , संस्कार विहीन और दिशा भ्रमित होते जा रहे हैं ।
इस उपभोक्तावादी संस्कृति जिसमे शिक्षा के मंदिरों को भी व्यापार व्यवसाय के केन्द्रों के रूप मैं परिवर्तित कर दिया हैं क्या वहां से संस्कारित , सुशिक्षित एवं रचनात्मक द्रष्टि कोण वाले नागरिक बनकर निकलेंगे । इस प्रतिस्पर्धा भरे युग मैं सिर्फ़ यह शिक्षा दी जाती है की अधिक लाभप्रद और ऊँचे से ऊँचे ओहदे कैसे प्राप्त किया जाए। और उसके लिए माता पिता द्वारा महंगे दामों को चुकाया जाता है । ऐसे मैं बच्चों को सांस्कृतिक , नैतिक सुचिता , सामाजिक व्यवहार और सामाजिक कर्तव्यों पर आधारित शिक्षा का मिल पाना दूर की कौडी साबित हो रही है ।
साधन संपन्न माता पिता जिनके पास अपने बच्चों के लिए समय नही है । वे अपने बच्चों को महंगे बोर्डिंग स्कूल मैं भेजकर एवं कमसिन उम्र मैं ही भौतिक सुख सुबिधाओं के सभी साधन उपलब्ध कराकर , पारिवारिक पाठशाला से दूर कर , अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली जाती है।
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव ने भी बच्चों के कोमल मन पर भी बुरा प्रभाव डाला है । खासकर फिल्मों एवं टीवी और कंप्यूटर गेम्स ने अहम् भूमिका निभाई हैं । ये साधन हैं जो अभिजात शहरी एवं सर्वहारा ग्रामीण दोनों वर्ग को प्रभाबित कर रहे है । एक और जहाँ फिल्मी नायक के हेरातान्गेज़ कारनामे , हिंसक व उत्तेज़क द्रश्य बच्चों को उच्च श्रंखाल , निरंकुश और समय से पहले व्यस्क बना रहे हैं वही टीवी बच्चों को देने एवं समाज से दूर कर रही है। हिंसक कंप्यूटर गेम भी बच्चों मैं मानसिक विकृतियाँ पैदा कर रही है ।

आवश्यकता है संस्कृतक और नैतिक शिक्षा को अनिवार्य किया जावे , धर्म और योग जैसे विषयों को भी पाठ्यक्रम मैं शामिल किया जावे , माता पिता के द्वारा भी अपने बच्चों को समुचित समय और ध्यान देकर समय समय पर आवश्यक समझाइश दिया जावे ।

मंगलवार, 25 मार्च 2008

मापदंड तो तय होना चाहिए .

सांसद , विधायक और मंत्री महोदय अपने वेतन और सुबिधाओं को बढ़ाने मैं लगे हुए हैं । वह भी बिना किसी तय मापदंड और आधार के । न कोई जिरह , न कोई शोरगुल , न कोई विरोध , सबकी मैजे थपथपाकर खुशी खुशी स्वीकृति । एक बार पद प्राप्त कर लेने मात्र से ताउम्र पेंशन के हक़दार।
वही दूसरी और संसद , विधानमंडल मैं हंगामा , हाथापाई , मारपीट एवं दिन भर की कार्यवाहिओं को बाधित करना । जनहित व देशहित के मुद्दों को दरकिनार कर अपनी ढपली अपना राग अलापना । जनता की खून पसीने की कमाई को व्यर्थ बहाना पर कोई रोकने वाला नही ।
देश मैं चक्का जाम , जुलुश , धरना प्रदर्शन कर जनता की परेशानियों को बढ़ाना , कोई बोलने वाला नही ।
अपने पक्ष मैं वोट देने के लिए वोटरों की खरीद फरोख्त करना । अपने क्षेत्र से चुनाव के बाद लगातार गायब रहना । भ्रष्ट्राचार , हेराफेरी , अन्डर वर्ल्ड से संबंधों होने का लगातार आरोप लगना , पर कार्यवाहियों के नाम पर लीपापोती ।
न कोई योग्यता का निर्धारण , न कोई पुलिस वेरीफिकेशन और न कोई अनुभव के आवश्यकता , फिर भी हजारों , लाखों और करोडों लोगों की भावनाओं के प्रतिनिधितव के जिम्मेदारी , प्रदेश व देश को चलाने की जिम्मेदारी ।
वही एक सरकारी चपरासी के नौकारी के लिए योग्यता , पुलिस वेरीफिकेशन और अनुभव की आवश्यकता । यहाँ तक की पेंशन बंद करने की भी बात हो रही है । परिवार नियोजन और उम्र की भी बाध्यता । वेतन भत्ते बढ़ाने के लिए वेतन आयोग की सालों की जद्दोजहद ।
जब एक चपरासी की नौकरी के लिए इतनी सारी बाध्यता, तो प्रदेश व देश को चलाने वालों के लिए इन सब बातों के कोई मायने नहीं ।
क्या इन सब बातों को सोचकर हम सब खिन्न नही हैं , आख़िर कब तक ऐसा चलेगा ।

कृपया टिप्पणी देवे।

रविवार, 23 मार्च 2008

आने वाली पीढ़ी का तो ख्याल करें .

अब आप कहेंगे ऐसी कौन सी बात है जो आने वाली पीढ़ी के लिए भी सोचनी पड़ेगी । जी हाँ प्रकृति प्रदत्त जीवन दायिनी एक अनमोल नियामत जिस पर हमारा ही नहीं आने वाली पीढ़ी यों का भी अधिकार हैं। एक ऐसी अनमोल चीज जिसके बिना इंसान तो क्या सारे विश्व का काम नही चले। अब वह आसानी से मिलने वाली चीज थोड़े ही रही है । खासकर गर्मी के दिनों मैं तो मिलना बड़ा ही मुश्किल होता है । उसके पाने के लिए लम्बी कतार लगनी पड़ती है । आस पड़ोस तो क्या भाई भाई मैं भी उसके लिए लड़ाई हो जाती है । गाओं मैं तो उसकी खोज मैं लोग बड़ी दूर दूर तक जाते हैं । अब तो वह बहुत कीमती हो गया है । कीमती तो पहले से था । किंतु हो सकता है भविष्य मैं वह पैसा देने पर भी नही मिले । और तो और उसे कृत्रिम रूप से पैदा भी नही किया जा सकता है । क्योंकि ऐसी वैज्ञानिक विधि भी इजाद नही हो पाई है और न ही ऐसी कोई जादू की छड़ी है जिसको घुमाकर सभी को दिलाई जा सके । अब तो समझ गए होंगे मैं किसकी बात कर रहा हूँ । जी हाँ जीवन के लिए अनमोल है जो अर्थात पानी या जल , जिस पर मानव मात्र नही वरन समस्त वनस्पति और प्राणी जगत का भी हक़ है ।
हमने उसे सहेजने की भी तो कोशिश नही की हैं । पहले से विद्यमान झरने , तलब , कुओं और बब्दियों को तो नष्ट होने की कगार पर पंहुचा दिया साथ ही नदी व नाले के अस्तित्व को भी खतरे मैं डाल दिया है । और तो और जमीन से निकलकर उसे बरवाद करने पर तुले हुए हैं । क्या हम अगला विश्व युद्ध करवाकर ही मानेंगे ।
अब तो हमें चेत जाना चाहिए । हर निजी तथा शाश्कीय बिल्डिंग मैं वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम अपनाकर , नए जंगलो को तैयार कर , नदियों व तालाबों , कुओं व बब्दियों का जीर्णोद्धार कर वर्षा का जल सहेजना होगा । बंजर व बेकार पड़ी निजी व राजस्व भूमि मैं निजी व शाश्किया संस्था के सहयोग से तलब खुदवाकर एवं नदी व नालों मैं बाँध बनाकर पानी को रोककर जल स्तर को बढाया जाना चाहिए । इनमे मछली पालन , अन्य जलीय खेती करवाकर और संचित जल को सशुल्क सिंचाई हेतु देकर आर्थिक लाभ का साधन बनाया जा सकता है । स्कूली शिक्षा एवं प्रचार प्रसार के माध्यम से लोगों को जल संग्रहण एवं जल के किफायती उपयोग हेतु प्रेरित किया जा सकता है । अतः इस हेतु समुचित प्रयास किया जाना चाहिए , तभी हम अगली पीढ़ी का ख्याल करते हुए विश्व को अगले विश्वयुद्ध से बचा सकते हैं।

कृपया अपने टिप्पणी देवे ।

शनिवार, 22 मार्च 2008

अच्छा किया जो आपने होली मना ली .

आपने होली मनाया क्या ? क्या कहा , हाँ , अच्छा किया जो होली मना लिया । नहीं मनाते तो बड़ी मुश्किल हो जाती । क्या कहा कैसे ? अरे भाई बताता हूँ कैसे ।
यदि आप होली नहीं मानते तो , तो क्या , नहीं नहीं कुछ नहीं बस इस साल की होली मनाने से चूक जाते। हैं न , और अगली होली के लिए पूरे एक साल इंतज़ार करना पड़ता । तब तक के लिए हमारे दबे हुए अरमान दबे के दबे रह जाते । क्यों सही हैं न । मौका जो आया है आया है होली का , बहाना जो है होली का , चलो इसी के बहाने अपने अपने दबे हुए अरमान उगल दो । आप कहोगे किस से , यह भी मुझे बताना पड़ेगा । चलो फिर भी बता देता हूँ। अपने दोस्तों या सहेलियों से किसी की बुराई या चुगली करनी हो, भाभी या दीदी से उनकी चोटी बहन / भाई या फिर देवर / ननद के बारे मैं कुछ कहना हो ( कुछ का मतलब समझ गए न )। चाचा चाची , मामा मामी , दादा दादी , नाना नानी या फिर किसी रिश्तेदार या सम्बन्धी से कोई बात होली के बहाने कह डाली होगी । हो सकता है महीनों , नहीं सालो पुरानी बात बन गई होगी। होली के बहने ही सही कट्टी मिट्ठी मैं बदल गई होगी । चलो बात तो शुरू हो गई होगी । और यदि बात नहीं बनी होगी तो , आपने कहा होगा मैं तो मजाक कर रहा था , और कह डाला होगा बुरा न मानो होली है । ठीक हैं न।
दूसरी बात यह है की रंग गुलाल जिसे कंपनी वालों ने पता नहीं क्या क्या मिलकर बनाया होगा , होली खेलकर उन्हें फायदा जो पहुचाना है । गली मोहल्ले के नाले , गटर व कीचड़ से भरे हुए दब्ब्रे आपके सम्पर्क मैं आकर धन्य हो गए होंगे । उनके कीडे मकोडे के भी अधूरे अरमान पूरे हो गए होंगे । ठीक हैं न बहुत हो चुकी होली । होली मना लिया न तो लौट चलो अपने काम पर यह कहकर की बुरा क्यों माने होली जो है ।
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गुरुवार, 20 मार्च 2008

कहाँ गए वो दिन !

वो सुबह की सैर व नीम व बबूल की दातून ,

तो कहाँ अब पावडर व पेस्ट से ब्रुश करना ।
वो नदी , तालाब , कुआं व बाबडियों के पानी से नहाना ,

तो कहाँ अब कई दिनों के जमा पानी से नहाना ।
वो नानी दादी के हाथ की मक्के , ज्वर और बाजरे की रोटी और सरसों का साग ,

तो कहाँ अब पिज्जा बर्गर और पराठे की जुगाली ।
वो चटपटी चटनी व आचार , कुरकुरे पापड़ और मस्त लाज्ज़त्दार सिवैयाँ ,

तो कहाँ अब कुरकुरे , आलू चिप्स और आचार मैं अपनापन को ढूदना ।

वो नानी दादी के छोटे छोटे नुस्खे जो झट सारी बिमारी को भगाते थे दूर ,

तो कहाँ अब डॉक्टर की दौड़ व महंगी दवाइयाँ की होड़ ।

वो चोपाल मैं बैठकर गाओं के काका मामा व बुजर्गों के साथ गपियाना ,

तो कहाँ बुद्धू बक्से के सामने बैठकर बस सिर हिलाना और मुस्कराना ।

वो लस्सी व छाछ का गिलास और नीम्बू की शरबत व आम का पन्ना ,

तो कहाँ अब ठंडा मतलब नुकसानदायक रासायनिक पेय पदार्थ ।

वो सांझा चूल्हा व सांझा ईद व दीवाली की खुशियों का संसार ,

तो कहाँ अब अपने अपने मैं मस्त जिन्दगी की भागम दौड़ ।

क्या वो मेरे वो दिन लौतंगे कभी , कहाँ गए वो दिन !

सोमवार, 17 मार्च 2008

प्रसिद्धि पाने के आसान व असुरक्षित उपाय !

क्या आपको प्रसिद्धि पाना है । दुनिया मैं अपने नाम का परचम लहराना हो । या जनता को अपने होने का अहसास दिलाना हो । बस क्या है कोई असयांमित या अमर्यादित कार्य को या मजाक मजाक मैं कोई विवादित बात कह दो । अर्थात विवादित बातो को अंजाम दो और विवादों मैं रहो । आप अपने रूचि के अनुसार कोई भी आइडल मामला चुन सकते हो। जैसे मीका व राखी , मटुकनाथ व जुली , बिग बॉस मैं शिल्पाशेत्टी या फिर नया नया राज ठाकरे का मामला। ये ऐसे कार्य है जिसमे परिश्रम व मेहनत कम लगती है और कम समय मैं खोई हुई प्रसद्धि व शोहरत मिल जाती है । इसमे मीडिया को विश्वाश मैं लिया जाना निहायत जरुरी है वही तो है जो आपकी शोहरत को जन जन तक पहुचायंगे । इस बात से कोई मतलब नही होना चाहिए की ऐसे कार्य से देश व समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा । हमे तो बस प्रसद्धि पाना है वह भी आशां व असुरक्षित साधन अपनाकर। जब मामला बढ़ने लगे तो अपनी बात का दूसरा मतलब निकालकर बताओ । ज्यादा ख़राब नौबत आये तो बयान से पीछे पलट जाओ और माफी मांग लो । या यह कहकर की मीडिया ने मेरी बात को तोड़ मरोड़कर पेश किया है और मामले से पल्ला झाड़ लो। यदि बात नही बनती है तो आपको कोर्ट या जेल जाने के लिए तैयार होना पड़ेगा । हाँ एक बात है की जब तक केस चलेगा आपका नाम लिया जाएगा । इससे से आपकी प्रसिद्धि लंबे समय तक बनी रहेगी , हो सकता जीवन पर्यंत , कोर्ट मैं केस जो सालो साल चलते है। तथाकथित समाज व धर्मं के ठेकेदार या कोई राजनेतिक अतिवादी संगठन आपके विरुद्ध प्रदर्शन व तोड़फोड़ की कार्यवाही कर सकता है। जान से मरने की धमकी भी मिल सकती है। इससे आपकी प्रसद्धि मैं और इजाफा होगा । आप अपने साथ घर , परिवार , दोस्त भाई व पड़ोस को भी प्रसिद्धि पाने का मौका दे सकते है । उनका टीवी व समाचार पत्रों मैं फोटो सहित साक्षात्कार जो आयेगा। आपके मौहल्ले व शहर का नाम भी रोशन होगा। तो देर किस बात की उठो , जागो और अपनाओ प्रसिद्धि पाने के इन आसान व असुरक्षित उपायों को और देश व दुनिया मैं छा जाओ ।

मंगलवार, 11 मार्च 2008

वाह क्रिकेट या आह क्रिकेट

समाचार पत्रों एवं टीवी मैं बस क्रिकेट और बस क्रिकेट की खबरें छाई रहती है । कोई खिलाडिओं की परफॉर्मेंस को लेकर बहस कर रहा है तो कोई हार जीत की संभावनाओं को तलाश रहा है । कौन सा खिलाड़ी खेलेगा और कौन सा खिलाड़ी बाहर रहेगा , अट्कलोँ का दौर जारी हैं । ऐसा लगता हैं की देश मैं क्रिकेट के अलावा कोई महत्व की ख़बर ही नही हैं । सारे देश बस क्रिकेट मय हो गया हैं । देश के आम मुद्दें क्रिकेट मैं कहीं गुम हो गए हैं । यदि क्रिकेट जीता देश मैं ईद व दीवाली और हारा तो मातम । इसी की आड़ मैं मीडिया और बीसीसीआई की बल्ले बल्ले हो रही है। मीडिया के लिए भी नई ख़बर ढूँढने की जद्दो जहद नहीं करनी पड़ती हैं। खिलाडिओं की भी कम बल्ले बल्ले नही हो रही हैं।
यह एक अच्छी बात हैं की खेल के प्रति देश मैं रूचि जागी है। इससे देश खेल जगत मैं अपनी एक अलग पहचान बनी हैं । खिलाडिओं को भी अच्छा खासा पैसा मिल रहा है । लोग अपने दुःख दर्द भूलकर क्रिकेट की जीत की खुशी मैं मदमस्त हो रहें है । सभी भेदभाव मिटाकर लोग एक साथ खुशिओं मना रहें हैं । इन सभी बातों से मन वाह क्रिकेट वाह कह उठता हैं ।
किंतु इन सब बातों से इतर कुछ बातों को सोचकर मन आह क्रिकेट कह उठता हैं। क्या क्रिकेट देश की सभी समस्याओं का समाधान कर सकता हैं जैसा की सारा देश बस क्रिकेट की बातें करता नजर आता हैं । क्या क्रिकेट देश के १०० करोड़ से भी अधिक की जनता को भूख , भय और भ्रष्ट्राचार से मुक्ति दिला सकता हैं। क्या क्रिकेट देश नौजवानों के लिए रोजगार का साधन बन सकता हैं। क्या देश की उन सभी प्रतिभाओं जो अपनी पढ़ाई लिखाई और काम धन्द्दे छोड़कर क्रिकेट और बस क्रिकेट खेल रहें हैं को सचिन , सहवाग और धोनी जैसे अवसर मिल सकते हैं। क्या इन सभी लोगों को राष्ट्रीय टीम मैं स्थान मिल सकता है । क्या इतने अवसर हैं। क्या देश के अन्य खेलो के साथ भेदभाव कर किसी एक खेल को इतना बढ़ावा दिया जाना उचित हैं। साथ ही इसका बाजारीकरण करना खेल के लिए कहाँ तक उचित हैं ।
आवश्यकता हैं सभी खेलों को एक समान द्रष्टि से देखने की। सभी खेलों के लिए समान अवसर और संसाधन उपलब्ध कराने की । सभी प्रदेश , जिलों एवं ब्लाक लेवल मैं खेलों के लिए टीम गठित करने की । प्रतिवर्ष खेलों का आयोजन करने की , जिससे सभी खेल प्रतिभाओं को आवश्यक और समान अवसर मिल सकेंगे । इसमें सरकार और आई सी एल एवं आई पी एल जैसी अन्य खेल संस्थाओं की भागीदारी ली जा सकती हैं। मीडिया भी फिल्मी गाने एवं डांस प्रतियोगिता जैसे स्पर्धा आयोजित कराकर खेल प्रतिभाओं को आवश्यक मंच और अवसर उपलब्ध कर सकती हैं।

शुक्रवार, 7 मार्च 2008

पानी भरती एक लड़की

तपती धुप मैं पसीना पोछते हुए हैंडपंप चलाकर एक लड़की पानी भर रही थी । सुबह से कई दफा पानी भर चुकी थी फिर भी पानी की जरुरत बनी थी । एक तो हैंडपंप बहुत मुश्किल से चल रहा था , बहुत मेहनत से कई बार हैंडपंप चलाने के बहुत थोड़ा थोड़ा पानी आता था । पानी भरते हुए लड़की सारे दिन के काम के बारे मैं सोचती है की पानी भरने के बाद मुझे भाई के कपड़े भी धोने है , मां के और पिताजी के भी कपड़े धोने हैं । भाई को जल्दी नहाना भी होगा , उसे खेलने जाना होगा या फिर फिल्म देखने जाएगा । उसके लिए खाना भी जल्दी पकाना होगा । आज स्कूल की छुट्टी जो है । इन सब कार्यों के अलावा घर की साफ साफाई भी करनी है। दिन भर शायद ही फुरसत मिले । छुट्टी होने के कारण पिताजी के दोस्त या फिर मां की सहेली भी आ सकती है या फिर मेहमान भी आ सकते है । उनके लिए चाय व नाश्ता भी बनाना होगा । हो सकता है मां पिताजी बाहर घूमने जायें तो मुझे घर पर ही रहकर घर के अन्य कार्य करना होगा । सोचते सोचते वह खयालो मैं खो जाती है। तभी सहसा एक आवाज आती है कामचोर कबसे पानी भर रही है , तेरा भाई नहाने के रास्ता देख रहा है। मां जी बस भरकर ला ही रही थी । मायूस सा मन बनाकर फिर से काम मैं लग जाती है।

बुधवार, 5 मार्च 2008

हमारे जन प्रतिनिधि कितने जिम्मेदार हैं ?

हमारे जन प्रतिनिधि हमारे क्षेत्र , प्रदेश व देश की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं । उनकी जीवन शैली व आचार व्यवहार से प्रतिनिधित्व क्षेत्र की पहचान तो झलकती है साथ ही वे लोगो के लिए प्रेरणा स्रोत भी बनते हैं । अतः जन प्रतिनिधि अपने व्यवहार एवं आचार के प्रति कितने जिम्मेदार हैं क्या वे कुछ बातों का पालन कर जनता के सामने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

१) क्या वे अपने एवं अपने पारिवारिक सदस्यों की चल एवं अचल संपत्ति का लेखा जोखा एवं आय के श्रोत की जानकारी प्रतिवर्ष जनता के सामने रखते हैं।

२) क्या वे अपने तथा पारिवारिक सदस्यों के विरुद्ध दर्ज अपराधिक प्रकरनो की जानकारी देते हैं ।

3) क्या वे अपने तथा पारिवारिक सदस्यों के बच्चो को स्थानीय स्तर के शासकीय स्कूलों मैं शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेजते हैं।

4) क्या वे अपने तथा परिजनों का इलाज स्थानीय स्तर के शासकीय अस्पतालों एवं चिकित्सकों से करवाते हैं।

५) क्या वे अपने अधीनस्थ अधिकारियों / कर्मचारियों को अपने बच्चो को स्थानीय स्तर के शासकीय स्कूलों मैं शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेजने को कहते हैं।
6) क्या वे अपने अधीनस्थ अधिकारियों / कर्मचारियों को अपने तथा परिजनों का इलाज स्थानीय स्तर के शासकीय अस्पतालों एवं चिकित्सकों से करवाने हेतु कहते हैं।
8) क्या वे प्रतिमाह क्षेत्र की जनता से रूबरू होने का प्रयास करते हैं।
9) क्या वे प्रति छः माह मैं क्षेत्र के विकास एवं लोगों की समस्याओं के सन्दर्भ मैं अपने द्वारा किए गए प्रयासों एवं उपलब्धियों का ब्यारों जनता के सामने रखते हैं।
10) क्या वे संसद / विधानसभाओं की बैठकों मैं गंभीरता पूर्वक भाग लेकर क्षेत्र के विकास एवं समस्याओं के सन्दर्भ मैं बात उठाते हैं।
11) क्या वे प्रतिमाह स्थानीय स्तर के आवागमन के साधनों से क्षेत्र का दौरा करने का प्रयास करते हैं।

12) क्या वे प्रतिमाह शासकीय राशन की दूकान से राशन लेते हैं।

मंगलवार, 4 मार्च 2008

कृषि क्षेत्र को उद्दोग का दर्जा दिया जाए.

यह बड़ी बिडम्बना है की जिस देश की ७० फीसदी जनता कृषि व्यवसाय से जुड़ी हो , उस देश मैं वही व्यवसाय उपेक्षित सा है । देश के मुख्य बजट मैं उसे विशेष स्थान न देकर दोयम दर्जे का माना जाता है । परिणामस्वरूप कृषि व्यवसाय से जुड़े हुए लोगो को भारी परेशानी का सामना कर पड़ रहा है। कही किसान खड़ी फसल जलाने को बाध्य हो रहा है तो किसान कृषि व्यवसायों मैं होने वाले नुकसान के चलते आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे है। साथ ही फायदे का सौदा न होने के कारण लोग उस व्यवसाय से मुंह मोड़ने लगे है। फलस्वरूप ग्रामीण जनता को भारी बेरोजगारी की समस्या से जूझना पड़ रहा है। योजना आयोग के रपट के अनुसार २७ फीसदी किसान खेती को फायदे का कारोबार न मानकर परंपरागत किसान होने के नाते करते है। वही ४० फीसदी किसान कृषि व्यवसायों से पीछा छुड़ाना चाहते हैं ।
अतः सरकार को कृषि को विशेष उद्धोग का दर्जा देते हुए कृषि कार्य मैं सलंग्न लोगों एवं किसानों की समस्याओं के निराकरण एवं समाधान हेतु राज्य और केन्द्र स्तर पर विशेष प्रयास किए जाने चाहिए । देश के प्रत्येक क्षेत्र की स्थानीय भौगोलिक परिस्थिति आधारित कृषि की उन्नत तकनीक एवं कृषि यंत्रों को विकसित किया जाना चाहिए । किसानों को ब्याज रहित ऋण दिया जाना चाहिए । खाद की प्रचुरता मैं उपलब्धता सुनास्चित किया जाए , गोबर खाद एवं जैविक खाद को अपनाने हेतु प्रोत्साहित किया जाने चाहिए , जिसे वह अपने स्तर से बना सके , इस हेतु आवश्यक आर्थिक सहायता दी जाना चाहिए । सब्जियों , फलो एवं अनाज के भण्डारण हेतु सस्ते दरो पर भण्डारण सुबिधा उपलब्ध कराना चाहिए । इस हेतु प्रत्येक ग्राम स्तर पर भण्डारण ग्रहों को खोला जाना चाहिए । फसलों को उचित मूल्य पर खरीदने एवं भण्डारण हेतु सरकार को स्वयं आगे आना चाहिए । कृषि की उन्नत तकनीक अपनाने हेतु प्रेरित करने के उद्देश्य से ग्राम स्तर पर अधिक से अधिक प्रशिक्षण एवं प्रदाशन कार्यक्रम का आयोजन किया जाना चाहिए । कृषि कार्य हेतु आवश्यक जल राशी उपलब्ध हो , इस हेतु वर्षा के जल का भण्डारण एवं जल श्रोतों के किफायती और समुचित उपयोग हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए । सिंचाई कार्य हेतु पर्याप्त बिजली की उपलब्धता सुनिश्चित किया जावे और परमपरागत एवं उन्नत सिंचाई तकनीक के उपयोग हेतु बधाबा दिया जाना चाहिए । कृषि कार्य मैं सलग्न लोगो का पलायन रोकने एवं युवाओ को इस क्षेत्र मैं कार्य करने हेतु प्रेरित करने के लिए स्कूली पाठ्यक्रमों मैं कृषि को अनिवार्य विषय बनाना चाहिए । प्रत्येक जिला स्तर पर कृषि महाविद्यालय एवं खंड स्तर पर कृषि विद्यालय आवश्यक रूप से खोला जाना चाहिए । कुछ किसान ऐसे है जिनके पास भूमि है किंतु कृषि कार्य हेतु पर्याप्त संसाधन एवं पर्याप्त राशी नही है , कुछ किसान ऐसे है जो काम तो करना चाहते है किंतु कृषि कार्य हेतु भूमि एवं पर्याप्त संसाधन नही है , ऐसी स्थिति मैं कृषि भूमि को सरकार द्वारा किराया मैं लेकर स्थानीय लोगो से कृषि कार्य करवाना चाहिए। बहुत से बंजर एवं बेकार पड़ी राजस्व भूमि को इसी प्रकार कृषि कार्य हेतु उपयोग मैं लिए जाना चाहिए। कृषि उपज आधारित उद्दोग को अधिक से अधिक संख्या मैं स्थापित करने हेतु विशेष प्रयाश किए जाने चाहिए। इन कार्यो मैं स्वशाशी संस्थाओ का भी सहयोग लिया जाना चाहिए।
उपरोक्त अनुसार प्रयासों से स्थानीय लोगो का पलायन तो रुकेगा साथ ही नए रोजगार का सृजन होगा। राज्य एवं केन्द्र सरकार को बिना किसी राजनेतिक नफे नुकसान को ध्यान दिए कृषि क्षेत्र को बढावा देने हेतु कार्य किया जाना चाहिए। तभी हमारा देश विकास पथ पर दोड सकेगा जिसमे हर छोटे से छोटे तबके की भी हिस्सेदारी सुनास्चित हो सकेगी एवं सभी को इसका लाभ भी मिल पायेगा।

शनिवार, 1 मार्च 2008

क्या हम आक्रामक होते जा रहे है .

आए दिन अखवारो एवं टीबी के माध्यम पढने व देखने - सुनने को मिलता है की कहीं किसी घटना के विरोध मैं चक्काजाम और तोड़फोड़ की घटना हुई । तो किसी कॉलेज मैं छात्रों द्वारा तोड़फोड़ और आगजनी घटना को अंजाम देकर विरोध प्रदर्शन किया गया। कही कन्या द्वारा मंडप मैं दुल्हे की पिटाई हुई तो कही कोर्ट के सामने अपराधी को पीटकर मौत के घाट उतार दिया गया । अभी हॉल ही मैं कोलकात्ता के असान्सोल मैं एक ड्राईवर को घायल बच्चे के परिजन ने जिंदा जला डाला । साथ ही गुडगाँव के यूरो स्कूल मैं एक छात्र द्वारा दुसरे छात्रों को गोली मार देने की सनसनी खेज घटना ने तो लोगो को सकते मैं डाल दिया है। महाराष्ट्र की घटना ने तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है की अवधारणा को ही तारतार कर दिया है।
निश्चित रूप मैं ये घटनाये हमारे आक्रामक और असंवेदनशील व्यवहार की ओर इंगित करती है वह भी राम , रहीम और गौतम बुद्ध की धरती मैं जहाँ की धर्मं और संस्कृति हमेशा दया , सहिष्णु और सहयोग की सीख देती हो। इस भौतिक विकास की होड़ मैं जैसे जैसे हम शिक्षित व सभ्य हो रहे है हम और ज्यादा आक्रामक और असहिष्णु होते जा रहे है ।
लोगो का भौतिक सुख एवं संवृद्धि को प्राप्त करने की आपाधापी (वह भी आसान व असुरक्षित साधन अपनाकर ) , धर्मं के प्रति घटती आस्था और बिखरते सामाजिक ताने बाने ऐसी स्थिति पैदा कर रहे है। वहीं वोट बैंक के लिए की जा रही राजनेताओ की कारगुजारियों ने भी इसमे घी डालने का काम किया है ।
आवश्यकता है अध्यात्म और धर्मं की और लौटने की , सामाजिक परम्परा और संस्कृति को पुनार्जीवत करने की । पश्चिमी सभ्यता से प्रेरित संस्कृति को दरकिनार करने की । शिक्षा मैं योग और धर्मं को शामिल करने की । साझा परिवार की परम्परा को अपनाने की । तभी हम सम्ब्रद्ध और सुसंस्कृत भारत की कामना कर सकते है ।

लो बीत गया एक और #साल !

# फुर्सत मिली न मुझे अपने ही काम से लो बीत  गया एक और # साल फिर मेरे # मकान से ।   सोचा था इस साल अरमानों की गलेगी दाल , जीवन...