सोमवार, 31 मार्च 2008
.हम खफा क्यों हों .
क्यों न क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल घोषित जाए !
तो क्यों न इस बात पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाना चाहिए
शनिवार, 29 मार्च 2008
नम्बरों की होड़ मैं खोता बचपन .
दौर आया है परिक्षायों का , सभी छात्र इस उद्देश्य से जी तोड़ मेहनत कर रहे है की अधिक अधिक से नम्बर किसी भी तरह हासिल किया जाए । न रात का ख्याल न दिन का , न खाने का और न पीने का और न जागने का और सोने का . अपनी साख और व्यसयिकता चलते स्कूल मेनाज्मेंट और शिक्षक एवं साथ ही माता पिता द्वारा भी सख्त हिदायत दी जाते है की तुम्हे अच्छे से अच्छे नम्बर लाना है । दोस्तों के बीच भी अच्छे नम्बर लाने की होड़ भी है। अच्छे नम्बर लाकर अच्छे स्कूल या फिर अच्छे कॉलेज मैं दाखिला लेने की मजबूरी भी है।
इस प्रतिस्पर्धी एवं व्यावसायिकता परख शिक्षा वाले युग मैं जन्हा सिर्फ़ गहन अध्ययन आधारित ज्ञान को नहीं वरन उनके द्वारा प्राप्त नम्बरों को महत्व दिया जाता है , भले ही वह उस छात्र ने दिन रात रटकर शार्ट कट तरीके से प्राप्त किया हो । शिकशों द्वारा भी विषयों के गहन अध्ययन पर ध्यान न देकर कोर्स को पूरा करने के उद्देश्य से शार्ट कट तरीके से अच्छे नम्बर प्राप्त करने की शिक्षा दी जाती है । अच्छे नम्बर लाने की होड़ मैं माता पिता भी बच्चे को बंधुआ मजदूर के तरह पूरे समय पढ़ाई से बाँध रखते है । सुबह उठते ही स्कूल , स्कूल से फिर टुशन क्लास वह भी हर विषय के लिए अलग अलग जगह । बेचारा छात्र स्कूल व टूशन जाने मैं और सारे समय उनका होम वर्क करने मैं जुटा रहता है । कब वह खेलने कूदने बाहर जाए , कब वह सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों मैं भाग ले , और कब वह पारिवारिक सदस्यों के साथ समय बिताएं ।
परिणाम यह होता है की अपना बचपन और नैसर्गिक प्रतिभा को दरकिनार कर अच्छे नम्बर लाने की आपाधापी मैं कुछ तो अपना संतुलन और आत्मविश्वाश बनाये रखते हैं , किंतु कुछ कमजोर मन और आत्मविश्वाश व पढ़ाई मैं रूचि न रखने वाले बच्चे टूटकर ख़ुद को नुकसान पहुचाने वाले और आत्महत्या करने जैसे घातक कदम को उठाने हेतु मजबूर हो जाते हैं । आख़िर कब हमारी यह नम्बर आधारित शिक्षा पद्धति मैं बदलाब आएगा । इस सम्बन्ध मैं गाहे बगाहे बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों द्वारा आवाज उठाई जाती रही है किंतु समय के साथ वह भी कहीं गूम हो जाती है ।
आवश्यकता है लोर्ड मैकाले की क्लर्क को तैयार करने वाली शिक्षा मैं आमूल चूल परिवर्तन की । बच्चों की नैसर्गिक रूचि आधारित शिक्षा को बढावा देने की , जिसमे भारतीय परिवेश आधारित गुणवत्ता युक्त एवं प्रायोगिक शिक्षा को अधिक से अधिक स्थान मिले , उबाऊ पुस्तकों और बस्तों का बोझ कम हो , स्कूलों मैं तनाव रहित , सहयोगात्मक और दोस्ताना वातावरण निर्मित करने की , शिक्षा के व्यवसायी कारन पर रोक लगाकर नैतिक , सांस्कृतिक एवं व्यवहारिक शिक्षा पर जोर देने की । माता पिता को भी बच्चों के रूचि और रुझान को देखते हुए उनके विषय चयन और शिक्षा प्राप्ति पर ध्यान देना चाहिए । इस प्रकार शिक्षा पद्धति एवं प्रतिभा चयन तरीके मैं परिवर्तन एवं बच्चों की नैसर्गिक रूचि आधारित शिक्षा पद्धति अपनाने की । तभी हम अधिक से अधिक अंको को पाने की आपाधापी मैं खोते बचपन को बचा सकेंगे ।
शुक्रवार, 28 मार्च 2008
बिकने को तैयार हैं , बस खरीददार चाहिए !
एक समय था जब इंसान की कोई कीमत नहीं थी । इंसान अपने शरीर को ढोते हुए बहुत कम मैं भी गुजारा कर लेता था । अब इंसान चाहे वह बड़ी शक्शियत हो या आम इंसान , सभी कीमती हो गए हैं । क्योंकि इस उपभोग वादी संसार मैं सब कुछ बिकने को तैयार हैं । तो इंसान क्यों पीछे रहे । पहले मजबूरी मैं इंसान बिकने के लिए तैयार था और उसे बड़ी हेय की द्रष्टि से देखा जाता था । अब तो हर इंसान एक वस्तु या सामान के तरह बाज़ार मैं बिकने को तैयार है । हर इंसान की कीमत उसकी उपलब्धि और रुतबे के हिसाब से तय हो रही है । यहाँ तक की उसके अंग अंग की कीमत भी मिलने लगी है । आज देखो इंसान की कैसी बोली लग रही है , सांसदों , विधायकों और नेताओ की कीमत कहीं अपने पक्ष मैं वोट देने की लिए तो कहीं संसद मैं प्रश्न पूछने के लिए । खिलाड़ियों की तो बल्ले बल्ले हो रही है , आई पी एल , आई सी एल जैसी संस्था पैसा लेकर घूम रही हैं । क्या देश , विदेश के भी खिलाड़ी बिकने के लिए तैयार हैं । फिल्मी कलाकार बिकने के लिए तैयार है , यहाँ तक की वे शादी जैसे समारोहों मैं शरीक होने के लिए बिकने को तैयार हैं फिल्मों एवं रेम्प मैं जैसे चाहे चलने को तैयार है । गायक , अभिनेता , कलाकार , रचनाकार , लेखक तथा अन्य सभी प्रतिभाएं बिकने के लिए तैयार हैं । बस आपके जेब मैं पैसे होना चाहिए । दूल्हा अपनी नौकरी व व्यवसाय के दम पर तो दुल्हन अपनी सुन्दरता व नौकरी के दम पर बिकने को तैयार है । क्या सरकारी कर्मचारी / अधिकारी सभी इंसानों की मंडी मैं बिकने को तैयार हैं । आम आदमी के भी खरीदार भी हैं। कोई उनकी किडनी तो कोई आँख तो कोई उनका खून तो कोई उनकी पुरी बाडी खरीदने को तैयार हैं । इस भौतिकवादी युग मैं सब एक सामान बनकर बिकने के लिए तैयार हैं । हाँ एक बात यह हो सकती है की फिर आपकी जिन्दगी आपकी न रहे , आपकी इक्छा , आपकी भावना , आपका मन , आपके समस्त गतिविधियाँ खरीददार के हर एक इशारे के लिए मोहताज हो । सच ही तो हो आज का इंसान इमान व भावना विहीन होकर एक वस्तु अर्थात सामान बनकर दौलत की मंडी मैं बिकने के लिए तैयार खड़ा है ।
बुधवार, 26 मार्च 2008
दिग्भ्रमित और दिशाहीन होते बच्चे.
बच्चो द्वारा हिंसक घटनाओ को अंजाम देना आम बात होते जा रही है , कुछ घटनाओं ने सारे देश को सोचने के लिए के लिए मजबूर कर दिया । चाहे वह गुडगाँव के यूरो स्कूल मैं साथी छात्र को गोली मारने की घटना हो या किशोरों द्वारा अंजाम दी जाने वाली कोई लोमहर्षक घटना हो । ये घटनाएँ आने वाली पीढ़ी के भविष्य की भयावह तस्वीर को पेश करती है । बच्चे देश का भविष्य हैं । तो क्या हम यह कहें की देश का कल का भविष्य आज के बच्चे उच्च्श्रन्खाल , संस्कार विहीन और दिशा भ्रमित होते जा रहे हैं ।
इस उपभोक्तावादी संस्कृति जिसमे शिक्षा के मंदिरों को भी व्यापार व्यवसाय के केन्द्रों के रूप मैं परिवर्तित कर दिया हैं क्या वहां से संस्कारित , सुशिक्षित एवं रचनात्मक द्रष्टि कोण वाले नागरिक बनकर निकलेंगे । इस प्रतिस्पर्धा भरे युग मैं सिर्फ़ यह शिक्षा दी जाती है की अधिक लाभप्रद और ऊँचे से ऊँचे ओहदे कैसे प्राप्त किया जाए। और उसके लिए माता पिता द्वारा महंगे दामों को चुकाया जाता है । ऐसे मैं बच्चों को सांस्कृतिक , नैतिक सुचिता , सामाजिक व्यवहार और सामाजिक कर्तव्यों पर आधारित शिक्षा का मिल पाना दूर की कौडी साबित हो रही है ।
साधन संपन्न माता पिता जिनके पास अपने बच्चों के लिए समय नही है । वे अपने बच्चों को महंगे बोर्डिंग स्कूल मैं भेजकर एवं कमसिन उम्र मैं ही भौतिक सुख सुबिधाओं के सभी साधन उपलब्ध कराकर , पारिवारिक पाठशाला से दूर कर , अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली जाती है।
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव ने भी बच्चों के कोमल मन पर भी बुरा प्रभाव डाला है । खासकर फिल्मों एवं टीवी और कंप्यूटर गेम्स ने अहम् भूमिका निभाई हैं । ये साधन हैं जो अभिजात शहरी एवं सर्वहारा ग्रामीण दोनों वर्ग को प्रभाबित कर रहे है । एक और जहाँ फिल्मी नायक के हेरातान्गेज़ कारनामे , हिंसक व उत्तेज़क द्रश्य बच्चों को उच्च श्रंखाल , निरंकुश और समय से पहले व्यस्क बना रहे हैं वही टीवी बच्चों को देने एवं समाज से दूर कर रही है। हिंसक कंप्यूटर गेम भी बच्चों मैं मानसिक विकृतियाँ पैदा कर रही है ।
आवश्यकता है संस्कृतक और नैतिक शिक्षा को अनिवार्य किया जावे , धर्म और योग जैसे विषयों को भी पाठ्यक्रम मैं शामिल किया जावे , माता पिता के द्वारा भी अपने बच्चों को समुचित समय और ध्यान देकर समय समय पर आवश्यक समझाइश दिया जावे ।
मंगलवार, 25 मार्च 2008
मापदंड तो तय होना चाहिए .
कृपया टिप्पणी देवे।
रविवार, 23 मार्च 2008
आने वाली पीढ़ी का तो ख्याल करें .
अब आप कहेंगे ऐसी कौन सी बात है जो आने वाली पीढ़ी के लिए भी सोचनी पड़ेगी । जी हाँ प्रकृति प्रदत्त जीवन दायिनी एक अनमोल नियामत जिस पर हमारा ही नहीं आने वाली पीढ़ी यों का भी अधिकार हैं। एक ऐसी अनमोल चीज जिसके बिना इंसान तो क्या सारे विश्व का काम नही चले। अब वह आसानी से मिलने वाली चीज थोड़े ही रही है । खासकर गर्मी के दिनों मैं तो मिलना बड़ा ही मुश्किल होता है । उसके पाने के लिए लम्बी कतार लगनी पड़ती है । आस पड़ोस तो क्या भाई भाई मैं भी उसके लिए लड़ाई हो जाती है । गाओं मैं तो उसकी खोज मैं लोग बड़ी दूर दूर तक जाते हैं । अब तो वह बहुत कीमती हो गया है । कीमती तो पहले से था । किंतु हो सकता है भविष्य मैं वह पैसा देने पर भी नही मिले । और तो और उसे कृत्रिम रूप से पैदा भी नही किया जा सकता है । क्योंकि ऐसी वैज्ञानिक विधि भी इजाद नही हो पाई है और न ही ऐसी कोई जादू की छड़ी है जिसको घुमाकर सभी को दिलाई जा सके । अब तो समझ गए होंगे मैं किसकी बात कर रहा हूँ । जी हाँ जीवन के लिए अनमोल है जो अर्थात पानी या जल , जिस पर मानव मात्र नही वरन समस्त वनस्पति और प्राणी जगत का भी हक़ है ।
हमने उसे सहेजने की भी तो कोशिश नही की हैं । पहले से विद्यमान झरने , तलब , कुओं और बब्दियों को तो नष्ट होने की कगार पर पंहुचा दिया साथ ही नदी व नाले के अस्तित्व को भी खतरे मैं डाल दिया है । और तो और जमीन से निकलकर उसे बरवाद करने पर तुले हुए हैं । क्या हम अगला विश्व युद्ध करवाकर ही मानेंगे ।
अब तो हमें चेत जाना चाहिए । हर निजी तथा शाश्कीय बिल्डिंग मैं वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम अपनाकर , नए जंगलो को तैयार कर , नदियों व तालाबों , कुओं व बब्दियों का जीर्णोद्धार कर वर्षा का जल सहेजना होगा । बंजर व बेकार पड़ी निजी व राजस्व भूमि मैं निजी व शाश्किया संस्था के सहयोग से तलब खुदवाकर एवं नदी व नालों मैं बाँध बनाकर पानी को रोककर जल स्तर को बढाया जाना चाहिए । इनमे मछली पालन , अन्य जलीय खेती करवाकर और संचित जल को सशुल्क सिंचाई हेतु देकर आर्थिक लाभ का साधन बनाया जा सकता है । स्कूली शिक्षा एवं प्रचार प्रसार के माध्यम से लोगों को जल संग्रहण एवं जल के किफायती उपयोग हेतु प्रेरित किया जा सकता है । अतः इस हेतु समुचित प्रयास किया जाना चाहिए , तभी हम अगली पीढ़ी का ख्याल करते हुए विश्व को अगले विश्वयुद्ध से बचा सकते हैं।
कृपया अपने टिप्पणी देवे ।
शनिवार, 22 मार्च 2008
अच्छा किया जो आपने होली मना ली .
गुरुवार, 20 मार्च 2008
कहाँ गए वो दिन !
वो सुबह की सैर व नीम व बबूल की दातून ,
तो कहाँ अब पावडर व पेस्ट से ब्रुश करना ।
वो नदी , तालाब , कुआं व बाबडियों के पानी से नहाना ,
तो कहाँ अब कई दिनों के जमा पानी से नहाना ।
वो नानी दादी के हाथ की मक्के , ज्वर और बाजरे की रोटी और सरसों का साग ,
तो कहाँ अब पिज्जा बर्गर और पराठे की जुगाली ।
वो चटपटी चटनी व आचार , कुरकुरे पापड़ और मस्त लाज्ज़त्दार सिवैयाँ ,
तो कहाँ अब कुरकुरे , आलू चिप्स और आचार मैं अपनापन को ढूदना ।
वो नानी दादी के छोटे छोटे नुस्खे जो झट सारी बिमारी को भगाते थे दूर ,
तो कहाँ अब डॉक्टर की दौड़ व महंगी दवाइयाँ की होड़ ।
वो चोपाल मैं बैठकर गाओं के काका मामा व बुजर्गों के साथ गपियाना ,
तो कहाँ बुद्धू बक्से के सामने बैठकर बस सिर हिलाना और मुस्कराना ।
वो लस्सी व छाछ का गिलास और नीम्बू की शरबत व आम का पन्ना ,
तो कहाँ अब ठंडा मतलब नुकसानदायक रासायनिक पेय पदार्थ ।
वो सांझा चूल्हा व सांझा ईद व दीवाली की खुशियों का संसार ,
तो कहाँ अब अपने अपने मैं मस्त जिन्दगी की भागम दौड़ ।
क्या वो मेरे वो दिन लौतंगे कभी , कहाँ गए वो दिन !
सोमवार, 17 मार्च 2008
प्रसिद्धि पाने के आसान व असुरक्षित उपाय !
क्या आपको प्रसिद्धि पाना है । दुनिया मैं अपने नाम का परचम लहराना हो । या जनता को अपने होने का अहसास दिलाना हो । बस क्या है कोई असयांमित या अमर्यादित कार्य को या मजाक मजाक मैं कोई विवादित बात कह दो । अर्थात विवादित बातो को अंजाम दो और विवादों मैं रहो । आप अपने रूचि के अनुसार कोई भी आइडल मामला चुन सकते हो। जैसे मीका व राखी , मटुकनाथ व जुली , बिग बॉस मैं शिल्पाशेत्टी या फिर नया नया राज ठाकरे का मामला। ये ऐसे कार्य है जिसमे परिश्रम व मेहनत कम लगती है और कम समय मैं खोई हुई प्रसद्धि व शोहरत मिल जाती है । इसमे मीडिया को विश्वाश मैं लिया जाना निहायत जरुरी है वही तो है जो आपकी शोहरत को जन जन तक पहुचायंगे । इस बात से कोई मतलब नही होना चाहिए की ऐसे कार्य से देश व समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा । हमे तो बस प्रसद्धि पाना है वह भी आशां व असुरक्षित साधन अपनाकर। जब मामला बढ़ने लगे तो अपनी बात का दूसरा मतलब निकालकर बताओ । ज्यादा ख़राब नौबत आये तो बयान से पीछे पलट जाओ और माफी मांग लो । या यह कहकर की मीडिया ने मेरी बात को तोड़ मरोड़कर पेश किया है और मामले से पल्ला झाड़ लो। यदि बात नही बनती है तो आपको कोर्ट या जेल जाने के लिए तैयार होना पड़ेगा । हाँ एक बात है की जब तक केस चलेगा आपका नाम लिया जाएगा । इससे से आपकी प्रसिद्धि लंबे समय तक बनी रहेगी , हो सकता जीवन पर्यंत , कोर्ट मैं केस जो सालो साल चलते है। तथाकथित समाज व धर्मं के ठेकेदार या कोई राजनेतिक अतिवादी संगठन आपके विरुद्ध प्रदर्शन व तोड़फोड़ की कार्यवाही कर सकता है। जान से मरने की धमकी भी मिल सकती है। इससे आपकी प्रसद्धि मैं और इजाफा होगा । आप अपने साथ घर , परिवार , दोस्त भाई व पड़ोस को भी प्रसिद्धि पाने का मौका दे सकते है । उनका टीवी व समाचार पत्रों मैं फोटो सहित साक्षात्कार जो आयेगा। आपके मौहल्ले व शहर का नाम भी रोशन होगा। तो देर किस बात की उठो , जागो और अपनाओ प्रसिद्धि पाने के इन आसान व असुरक्षित उपायों को और देश व दुनिया मैं छा जाओ ।
मंगलवार, 11 मार्च 2008
वाह क्रिकेट या आह क्रिकेट
शुक्रवार, 7 मार्च 2008
पानी भरती एक लड़की
बुधवार, 5 मार्च 2008
हमारे जन प्रतिनिधि कितने जिम्मेदार हैं ?
हमारे जन प्रतिनिधि हमारे क्षेत्र , प्रदेश व देश की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं । उनकी जीवन शैली व आचार व्यवहार से प्रतिनिधित्व क्षेत्र की पहचान तो झलकती है साथ ही वे लोगो के लिए प्रेरणा स्रोत भी बनते हैं । अतः जन प्रतिनिधि अपने व्यवहार एवं आचार के प्रति कितने जिम्मेदार हैं क्या वे कुछ बातों का पालन कर जनता के सामने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
१) क्या वे अपने एवं अपने पारिवारिक सदस्यों की चल एवं अचल संपत्ति का लेखा जोखा एवं आय के श्रोत की जानकारी प्रतिवर्ष जनता के सामने रखते हैं।
२) क्या वे अपने तथा पारिवारिक सदस्यों के विरुद्ध दर्ज अपराधिक प्रकरनो की जानकारी देते हैं ।
3) क्या वे अपने तथा पारिवारिक सदस्यों के बच्चो को स्थानीय स्तर के शासकीय स्कूलों मैं शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेजते हैं।
4) क्या वे अपने तथा परिजनों का इलाज स्थानीय स्तर के शासकीय अस्पतालों एवं चिकित्सकों से करवाते हैं।
५) क्या वे अपने अधीनस्थ अधिकारियों / कर्मचारियों को अपने बच्चो को स्थानीय स्तर के शासकीय स्कूलों मैं शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेजने को कहते हैं।
6) क्या वे अपने अधीनस्थ अधिकारियों / कर्मचारियों को अपने तथा परिजनों का इलाज स्थानीय स्तर के शासकीय अस्पतालों एवं चिकित्सकों से करवाने हेतु कहते हैं।
8) क्या वे प्रतिमाह क्षेत्र की जनता से रूबरू होने का प्रयास करते हैं।
9) क्या वे प्रति छः माह मैं क्षेत्र के विकास एवं लोगों की समस्याओं के सन्दर्भ मैं अपने द्वारा किए गए प्रयासों एवं उपलब्धियों का ब्यारों जनता के सामने रखते हैं।
10) क्या वे संसद / विधानसभाओं की बैठकों मैं गंभीरता पूर्वक भाग लेकर क्षेत्र के विकास एवं समस्याओं के सन्दर्भ मैं बात उठाते हैं।
11) क्या वे प्रतिमाह स्थानीय स्तर के आवागमन के साधनों से क्षेत्र का दौरा करने का प्रयास करते हैं।
12) क्या वे प्रतिमाह शासकीय राशन की दूकान से राशन लेते हैं।