शुक्रवार, 16 मार्च 2018

और न ही हमारा आँगन परिंदों का ठिकाना ही रहा !


न फूलों की रंगीनी रही न ही खुशबु रही ,
न ही वो ठंडक लिए खुशनुमा मौसम सुहाना ही रहा ।
न तो फूल और न ही क्यारियां रही ,
और न ही  हमारा आँगन परिंदों का ठिकाना ही रहा ।
न तो वक्त है और न ही वो जगह रही,
कहाँ वो पंछियों के दानापानी देने का जमाना ही रहा ।
जो बची थी आसपास थोड़ी जगह ,
वो आजकल कबाड़ और वाहनों का आशियाना ही रहा ।
काश बचा लेते इनके लिए जगह और समय ,
वर्ना बाद पछताने का 'दीप' यही एक बहाना ही रहा ।

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