बेड़ियों में जकड़ती अफगानी नारी ,
तमाशबीन बनी है ये दुनिया सारी ।
बंदिशें पर बंदिशें लगनी है जारी ,
पिंजरा बनता जा रहा बड़ा और भारी ।
धरी रह गई तरक्की और समझदारी ,
झट से बदल गई उनकी दुनिया सारी ।
उनकी ही आज़ादी के बने है शिकारी ,
उनके लिये ही सब बंदिशें है जारी ।
डरी सहमी सी है सब बेचारी ,
छाई है बस बेबसी और लाचारी ।
मदद की आस में सहती अत्याचारी ,
कोई तो आयेगा मदद को हमारी ।
बेड़ियों में जकड़ती अफगानी नारी ,
तमाशबीन बनी है ये दुनिया सारी ।
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (03-09-2021) को "बैसाखी पर चलते लोग" (चर्चा अंक- 4176) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
सच में अफगान और अफगानी नारियों का दर्द बेइंतहा हो चुका है हम लोग भी सिर्फ सहानुभूति रख रहे हैं उन्हें मदद का इंतजार होगा
जवाब देंहटाएंबहुत ही मर्मस्पर्शी सृजन।
आदरणीय भारद्वाज मेम
जवाब देंहटाएंमेरी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (03-09-2021) को "बैसाखी पर चलते लोग" (चर्चा अंक- 4176) पर चर्चा करने एवं चर्चा में आमंत्रित करने हेतु सादर धन्यवाद ।
आदरणीय सुधा मेम ,
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने , हम सिर्फ सहानुभूति ही रख सकते है और हम सब स्थिति अच्छी होने की आशा कर सकते है ।
आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए सादर धन्यवाद ।
प्रत्यक्ष सत्य को एक बार फिर मुखरित होती कविता
जवाब देंहटाएंमर्माघाती व्यथा का कोई तो छोर मिले । उनके कल्याण के लिए कोई तो हल मिले ।
जवाब देंहटाएंबेहद मर्मस्पर्शी सृजन।
जवाब देंहटाएंयथार्थ का हृदय स्पर्शी सृजन।
जवाब देंहटाएंआदरणीय डबराल सर , अमृता मेम, अनुराधा मेम और कोठारी मेम ,
जवाब देंहटाएंआपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के साथ मेरे ब्लॉग में आने के लिए सादर धन्यवाद ।