गर पा गए उड़ने का हुनर ,
और पा गए उड़ने का माद्दा ,
न समझ खुद को सितारा ,
न बसा अपना एक अलग जहां ,
लौट इक दिन वापस आना है ,
क्योंकि वो तो उधार का है आसमां ।
उड़ते उड़ते जब थक जाओगे ,
किसी उलझन में उलझ जाओगे ,
मुसीबतों में तब हमदर्द बनकर ,
अपने ही बनेंगे इक आसरा ,
काम न आएगा सितारों का वो जहां,
क्योंकि वो तो उधार का है आसमां ।
ख्वाहिशों को अपनी दफनाकर ,
मुसीबतों का पहाड़ उठाकर ,
जो सहूलियतें के पंख देते है लगवा ,
उन अपनों का सितारा बनकर,
बना अपना ही आसमां ,
क्योंकि वो तो उधार का है आसमां ।
वाह।
जवाब देंहटाएंपाण्डेय सर आपकी बहुमूल्य प्रतिकृया हेतु सादर धन्यवाद ।
हटाएंअच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंजोशी सर आपकी बहुमूल्य प्रतिकृया हेतु सादर धन्यवाद ।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंभारद्वाज मेम मेरी रचना को चर्चा शुक्रवार ( 13-11-2020) को "दीप से दीप मिलें" (चर्चा अंक- 3884 ) में शामिल करने हेतु एवं आमंत्रण हेतु सादर आभार एवं धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबना अपना ही आसमां... सुंदर, सकारात्मक रचना 🙏
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव पर हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🚩🙏
- डॉ शरद सिंह
शरद मेम आपकी बहुमूल्य प्रतिकृया हेतु सादर धन्यवाद ।
हटाएंआपको भी दीपावली की बहुत बहुत मंगलकामनाएं ।
सुन्दर रचना - -दीपोत्सव की असंख्य शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंशांतनु सर आपकी बहुमूल्य प्रतिकृया हेतु सादर धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंआपको भी दीपावली की बहुत बहुत मंगलकामनाएं ।
उड़ते उड़ते जब थक जाओगे ,
जवाब देंहटाएंकिसी उलझन में उलझ जाओगे ,
मुसीबतों में तब हमदर्द बनकर ,
अपने ही बनेंगे इक आसरा ,
काम न आएगा सितारों का वो जहां,
क्योंकि वो तो उधार का है आसमां ।...बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन सर।
आदरणीया मेम आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु बहुत धन्यवाद एवं आभार ।
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