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मंगलवार, 8 जुलाई 2008

खेल है कुर्सी का - न कोई दोस्त न कोई दुश्मन !

जनता बेकार मैं अपने दल और नेताओं के नाम पर आपस मैं लड़ती रहती है और दोस्त क्या भाई को भी दुश्मन बना डालती है । और आपस मैं लड़कर अपने समाज , गाँव और शहर की फिजा बिगाड़ लेती है । किंतु नेतायों और दलों की जिस विचारधारा को लेकर लोग आपस मैं लड़ लेते है और अपनों को दुश्मन बना लेते हैं क्या वे नेता और पार्टी अपने विचारधारा पर अडिग रहते है । जिन नेताओं ने जनता के सामने वोट मांगते समय अपने विरोधियों की विचारधारा और गतिविधियों को को बुरा भला कहा और उनके ख़िलाफ़ खूब जहर उगला था , क्या वे आज भी अपनी विरोधी विचारधारा पर कायम है ।
राजनीति मैं संभवतः सिद्धांत और विचारधारा का कोई स्थान नही रहा है , राजनीति मैं अब अवसरवादिता और मौका परस्ती ने जगह ले ली है । यंहा सिर्फ़ यह देखा जा रहा है की सत्ता और पद कैसे प्राप्त किया जाए । अपनी कुर्सी को कैसे बचाया रखा जाए । पुरानी दुश्मनी को भूलकर कैसे लाभ का पद प्राप्त किया जाए । भले ही पुराने दोस्त दुश्मन बन जाए । यंहा न कोई दुश्मन है और न ही कोई दोस्त , बस अपने नफे नुक्सान की सहूलियत के हिसाब से रिश्ते बदलते रहते हैं । कभी कोई दोस्त तो कोई दुश्मन ।
देश की राजनीति का यह सिद्धांत विहीन और मूल्यहीन गिरते स्तर को देखकर जनता मन मसोस कर रह जा रही है क्योंकि इनके पास इन्हे चुनने का अधिकार तो है किंतु हटाने का अधिकार तो नही है , जिस विश्वास के साथ जनता ने इन लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाकर देश की और जनता की सेवा के लिए भेजा था , वे अपने तात्कालिक नफे और नुक्सान के मद्देनजर आज किस तरह सिद्धांत विहीन और मूल्यहीन राजनीति कर रहे हैं । जिस तरह से उसके साथ विश्वाश्घात हो रहा है , जनता अपने आप को छला हुआ महसूस कर रही है ।
देश मैं घट रहे इस तरह के राजनीतिक घटना क्रम के चलते जनता कंही अन्दर ही अन्दर विचलित और बैचेन है । जनता उनके चुने हुए प्रतिनिधियों की स्तरहीन कारगुजारियों को देखकर अचंभित और आक्रोशित हैं । इन सब घटनाक्रमों के चलते जनता का देश की राजनीति और राजनेताओं के प्रति विश्वाश उठने लगा है । लोग अब इस गिरती राजनीती के स्थान पर नए विकल्प और व्यवस्था की और आशा भरी निगाह से खोज और तलाश करने लगे हैं ।

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