सब कुछ छोड़ आया कुछ पाने की आस में ।
सब कुछ छोड़ आया कुछ पाने की आस में ।
मुझे खूब आगे बढ़ना है मुझे कुछ बनना है ,
शोहरतें और सब सुविधाएँ पाने की तमन्ना है ,
कितनी दूर निकल आये इन सबकी तलाश में ।
पहले चैन और सुकून छूटा फिर घर छूटा ,
परिवार छूटा फिर दोस्त और यारी छूटी ,
गली मोहल्ला और बस्तियां सारी छूटी ,
बस अकेले ही चल पड़े मुसाफिर के लिबास में ।
सोचा था कुछ बन जाऊँगा पैसा कमाऊँगा,
जो मन चाहे वैसा सबकुछ कर जाऊँगा ,
वो वक्त न आ सका कुछ ज्यादा पाने के प्रयास में।
ढल रही है उम्र मुट्ठी की रेत की तरह ,
पिघल रही है जवानी जलते मोम की तरह ,
घायल तन को घेर रहे है रोग चींटी की तरह ,
पैसा है वक्त है पर अच्छी तासीर नहीं है पास में।
सारी उम्र यूँ ही गुजार दी जीवन की तराश में ,
अब तो गुजरेगी जिंदगी अच्छे पलों की याद में ,
कुछ न हासिल आया "दीप" इस खाली हाथ में ,
सब कुछ छोड़ आया कुछ पाने की आस में ।
किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।
जवाब देंहटाएं