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गुरुवार, 20 मार्च 2008

कहाँ गए वो दिन !

वो सुबह की सैर व नीम व बबूल की दातून ,

तो कहाँ अब पावडर व पेस्ट से ब्रुश करना ।
वो नदी , तालाब , कुआं व बाबडियों के पानी से नहाना ,

तो कहाँ अब कई दिनों के जमा पानी से नहाना ।
वो नानी दादी के हाथ की मक्के , ज्वर और बाजरे की रोटी और सरसों का साग ,

तो कहाँ अब पिज्जा बर्गर और पराठे की जुगाली ।
वो चटपटी चटनी व आचार , कुरकुरे पापड़ और मस्त लाज्ज़त्दार सिवैयाँ ,

तो कहाँ अब कुरकुरे , आलू चिप्स और आचार मैं अपनापन को ढूदना ।

वो नानी दादी के छोटे छोटे नुस्खे जो झट सारी बिमारी को भगाते थे दूर ,

तो कहाँ अब डॉक्टर की दौड़ व महंगी दवाइयाँ की होड़ ।

वो चोपाल मैं बैठकर गाओं के काका मामा व बुजर्गों के साथ गपियाना ,

तो कहाँ बुद्धू बक्से के सामने बैठकर बस सिर हिलाना और मुस्कराना ।

वो लस्सी व छाछ का गिलास और नीम्बू की शरबत व आम का पन्ना ,

तो कहाँ अब ठंडा मतलब नुकसानदायक रासायनिक पेय पदार्थ ।

वो सांझा चूल्हा व सांझा ईद व दीवाली की खुशियों का संसार ,

तो कहाँ अब अपने अपने मैं मस्त जिन्दगी की भागम दौड़ ।

क्या वो मेरे वो दिन लौतंगे कभी , कहाँ गए वो दिन !

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