साथ अपनों का अपनों से ,जाता है छूट ।
जैसे पेड़ के पत्ते साख से , जाते है टूट ,
उड़ते आवारा से इधर उधर ,
शहरों की गलियों में जाए बिखर,
कभी कुचले जाते है पैरों तले आकर,
तो कभी धूप में पड़ जाते है सूख,
कभी निवाला बन मिटाते है भूख ।
साथ जब मेघ से , बूंदों का जाता है छूट ,
न कुछ ठहराव तय और न तय होता वजूद ।
ले लेगी बहते वो निर्मल सरिता का रूप ,
या मिलेगा ठहराव में मलिन जल का कूप ,
अर्पण होगी देव चरणों में भक्ति स्वरूप,
या मिलकर मदिरा संग , बनेगी नशे का घूंट ।
ये नियति का लेखा है , या होती है कोई चूक ।
रिश्ता चाहे अपनों से , कितना ही हो अटूट,
साथ एक दिन अपनों का जाता ही है छूट ।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-03-2021) को "योगदान जिनका नहीं, माँगे वही हिसाब" (चर्चा अंक-4005) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आदरणीय शास्त्री सर , मेरी रचना को चर्चा अंक 4005 में सम्मिलित करने के लिए बहुत धन्यवाद और आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंएक उम्दा कविता ...उड़ते आवारा से इधर उधर ,
जवाब देंहटाएंशहरों की गलियों में जाए बिखर,
कभी कुचले जाते है पैरों तले आकर,
तो कभी धूप में पड़ जाते है सूख,
कभी निवाला बन मिटाते है भूख । ...वाह
ओंकार सर और सिंग मेम, आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु बहुत धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंएक बहुत अच्छी रचना
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