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शुक्रवार, 12 मार्च 2021

#साथ एक दिन #अपनों का जाता ही है #छूट ।

 


साथ अपनों का अपनों से ,जाता है छूट ।

जैसे पेड़ के पत्ते साख से , जाते है टूट ,


उड़ते  आवारा से इधर उधर , 

शहरों की गलियों में जाए बिखर, 

कभी कुचले जाते है पैरों तले आकर, 

तो कभी धूप में पड़ जाते है सूख,

कभी निवाला बन मिटाते है भूख । 


साथ जब मेघ से , बूंदों का जाता है छूट ,

न कुछ ठहराव तय और न तय होता वजूद ।


ले लेगी बहते वो निर्मल  सरिता  का रूप ,

या मिलेगा ठहराव में मलिन जल का कूप ,

अर्पण होगी देव चरणों में भक्ति स्वरूप,

या मिलकर मदिरा संग , बनेगी नशे का घूंट ।

ये नियति का लेखा है , या होती है कोई चूक । 


रिश्ता चाहे अपनों से , कितना ही हो अटूट, 

साथ एक दिन अपनों का जाता ही है छूट ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-03-2021) को    "योगदान जिनका नहीं, माँगे वही हिसाब" (चर्चा अंक-4005)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीय शास्त्री सर , मेरी रचना को चर्चा अंक 4005 में सम्मिलित करने के लिए बहुत धन्यवाद और आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  3. एक उम्दा कव‍िता ...उड़ते आवारा से इधर उधर ,

    शहरों की गलियों में जाए बिखर,

    कभी कुचले जाते है पैरों तले आकर,

    तो कभी धूप में पड़ जाते है सूख,

    कभी निवाला बन मिटाते है भूख । ...वाह

    जवाब देंहटाएं
  4. ओंकार सर और सिंग मेम, आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु बहुत धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं

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