सुबह का पता न शाम का ,
खाने की सुध न आराम का ,
लगातार सर झुकाये बैठे हो ,
#स्क्रीन पर नजर गड़ाये बैठे हो ।
कभी दर्द की शिकायत ,
तो उससे निजात की कवायद ।
एक अलग ही दुनिया बनाये बैठे हो ,
साथ अपनों का गवाये बैठे हो ।
ध्यान जरा अपना हटाकर ,
सर को अपने ऊपर उठाकर ,
उंगलियों को अपनी विराम दो ,
आंखों को अपनी आराम दो ।
यदि हो जाये ऐसी बगावत ,
तो मिल जाये कुछ राहत ।
अस्तित्व को अपने एक जुबान दो ,
अपने होने का जरा प्रमाण दो ,
बड़ों की बातों को मान दो ,
दीवानगी #मोबाइल को जरा लगाम दो ।
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आदरणीय भारद्वाज मेम ,
जवाब देंहटाएंमेरी रचना की चर्चा शुक्रवार (16-07-2021) को "चारु चंद्र की चंचल किरणें" (चर्चा अंक- 4127) पर शामिल करने के लिए सादर धन्यवाद ।
आज कल मोबाइल से कहाँ निजात ?
जवाब देंहटाएंनेक व उचित सलाह
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया कहा।
जवाब देंहटाएंसंगीता मेम, अमृता मेम एवं शर्मा सर, आपकी बहुमूल्य प्रतिकृया हेतु बहुत धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंखरे सर , आपकी उत्साहवर्धक बहुमूल्य टिप्पणी हेतु बहुत धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंकभी दर्द की शिकायत ,
जवाब देंहटाएंतो उससे निजात की कवायद ।
एक अलग ही दुनिया बनाये बैठे हो ,
साथ अपनों का गवाये बैठे हो ।
सुन्दर रचना.....
सामयिक रचना …
जवाब देंहटाएंमोबाइल ने बहुत कुछ छीना है हम सब से और बच्चों से …
हम समझ कर भी नहि समझते और बच्चे तो बच्चे हैं … मेरे ब्लॉग पर आने का बहुत आभार …
विकास सर,दिगंबर सर एवं अनुराधा मेम, ब्लॉग में आने और आपकी बहुमूल्य प्रतिकृया हेतु बहुत धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंआलेख
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
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