#आसमां सर पर क्यों उठाते हो  ,
पैर #जमी पर नहीं रख पाते हो  , 
जमी पैरों के नीचे
कि एक दिन ,
यूं ही जायेगी खिसक
, 
आग पानी में क्यों
लगाते हो । 
माना कि जमाने में
मुश्किलों है बहुत , 
कुछ सुलझती है कुछ
जाती है उलझ ,
हर समस्या से मिलती
नहीं  निजात है  , 
समझौता कर रहना पड़ता
साथ है , 
औखली में सर अपना
क्यों पड़वाते  हो ।........
जीवन थोड़ा है और काम
 है बहुत ,
दुनिया बड़ी है और
ज्ञान है बहुत , 
एक जीवन भी पड़ जायेगा
कम , 
समेटने को दुनिया
लगेंगे कई जनम , 
जीवन को जी का जंजाल
क्यों बनाते हो ।.....  
नाराजगियाँ  अपनों की जाती है छलक , 
दरियाँ दिलों का बहने
लगता है अलग , 
रखकर शीतल मिजाज अपना
 ,
रोक लें दिलों का
सुलगना , 
अपनों की कश्ती क्यों
भवर में उलझाते हो ।......  
आसमां सर पर क्यों
उठाते हो  ,
पैर जमी पर नहीं रख
पाते हो  ,
जमी पैरों के नीचे
कि एक दिन ,
यूं ही जायेगी खिसक
, 
आग पानी में क्यों
लगाते हो । 

जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०२-१०-२०२१) को
'रेत के रिश्ते' (चर्चा अंक-४२०५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आदरणीय अनीता मेम नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंमेरी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०२-१०-२०२१) को
'रेत के रिश्ते' (चर्चा अंक-४२०५) पर शामिल करने के लिए सादर धन्यवाद ।
आदरणीय ज्योति मेम आपकी सुन्दर सकारात्मक टिप्पणी के लिए सादर धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआदरणीय मनीषा मेम, आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु सादर धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंसार्थक सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंप्रेरक भाव , हृदय स्पर्शी रचना।
आदरणीय कोठारी मेम, आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु सादर धन्यवाद ।
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