#हसरतों की हवा चली ,
मन में एक आशा पली ,
#हौसलों ने हुकार भरी ,
कदमों ने वह डगर पकड़ी ,
जिसमें #मंजिल थी खड़ी ।
परिस्थितियों ने कुछ चाल चली ,
मौसम ने भी मुसीबत की खड़ी ,
जमाने ने की #जंजीरें थी खड़ी ,
#मुश्किलों की हर मार सही ,
पर हिम्मत गिर गिर उठी ,
मंजिल भी कुछ मेरी तरफ बढ़ी ।
अब पक्ष में घटनाऐं थी घटित ,
#चुनौतियां भी आत्मसमर्पित ,
संदेह मात्र नहीं था किंचित ,
हौसले भी अब है हर्षित ,
मंजिल अब न रही अविजित ।
मंजिल अब साथ है खड़ी ,
कदमों की डगर अब है थमी ,
हौसलों की हुंकार भी थमी ,
मन की भी आशा है फली ,
हसरतें भी है हंसी हंसी ।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-04-2022) को चर्चा मंच "हे कवि! तुमने कुछ नहीं देखा?" (चर्चा अंक-4395) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंआदरणीय मयंक सर , मेरी इस लिंक की चर्चा मंच "हे कवि! तुमने कुछ नहीं देखा?" (चर्चा अंक-4395) पर करने के लिए बहुत धन्यवाद और आभार ।
जवाब देंहटाएंसादर ।
आदरणीय ओंकार सर , आपकी सुंदर प्रतिकृया के लिए बहुत धन्यवाद ।
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