ऐ इंसानी गिद्ध ! खुद के दलदल से क्या तुम भी बच पाओगे ,
उसी दलदल में कल
खुद को या किसी अपने को भी पाओगे।
साँसों का सौदा , व्यापार जहर का ,
मनमानी लूटमार
जिंदा को तो नौच
खा रहे , न बकशा
अंतिम संस्कार ।
ऐसे नौचे हुये रुपयों के चीथड़ों को क्या घर ले जाओगे ,
बच्चों और परिवार
को खून से सने निबाले खिलाओगे ।
इस महामारी के
दौर में सबकी सांसें अटकी है ,
छोटा बड़ा , अमीर गरीब सब पर तलवार लटकी है ।
फिर तुम किस खेत
की मूली है जो तुम या तुम्हारे बच जाएंगे ,
देखना उसी दलदल
में कल खुद को या किसी अपने को पाओगे ।
वही तुम्हारे
जैसे गिद्धों को अपनों पर मँडराते पाओगे ।
जिंदा नोचेंगे वो
तुम्हारे अपनों को , पर तुम कुछ न कर पाओगे ।
क्योंकि कल तुम
भी इन गिद्धों के कृत्यों में शामिल थे ,
किस मुंह से तुम
खून से सने हाथों से अपनों को बचाओगे ।
ऐ इंसानी गिद्ध !
खुद के दलदल से क्या तुम भी बच पाओगे ,
उसी दलदल में कल
खुद को या किसी अपने को भी पाओगे।
वाह,बहुत बढ़िया।
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